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शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

कविता को लगा कैंसर

डा.दीप्ति गुप्ता

एक लंबे समय से मैं साहित्य की वह विधा, जिसे साहित्य का प्राण कहा जाता है; पढती आई हूँ और विश्वविद्यालय में पढाती भी आई हूँ। जी हाँ, मैं ‘कविता’ की ही बात कर रही हूँ। कम से कम शब्दों में यदि इसे व्याख्यायित करें तो – ‘ह्रदय के कोमलतम भावों की सौन्दर्यपरक अभिव्यक्ति कविता कहलाती है’ - कोमलतम भाव यानी सौंदर्य, प्रेम, सुख-दुःख संबंधी वे शाश्वत भाव जो जीवन की हर अनुभूति में समाए होते हैं। साहित्य के प्रणेताओं द्वारा कविता के सदियों से प्रतिष्ठित इस कालजयी रूप को दिलो-दिमाग में संजो कर, आज कविता के नाम पर, जब हम अश्लील, फूहड़ और बेतुक बंदी को झेलते हैं तो दिमाग में एक ऐसा बवंडर उठ खडा होता है जिसे रोकने के लिए स्वयं से जंग लड़नी पडती है। आज कुछ खास कवि, कविताएं लिख रहे है या इस विधा की आड़ में अपने रुग्ण भावों का जखीरा पेश कर रहे हैं, समझ नहीं आता। ? कविता – छंद-बद्ध और छंद-मुक्त – दोनों तरह की हो सकती है किन्तु भावों और संवेदनाओं की प्रधानता दोनों तरह की कविताओं की पहली शर्त है। यदि छंद की लयात्मकता कविता में नहीं है तो निश्चित रूप से भावों की लयात्मकता तो मिलेगी ही। महाकवि निराला की तमाम कवितायेँ छंद से अधिक भावात्मक लयबद्धता का सुन्दर उदाहरण हैं। लेकिन इस सबसे से भी एक महत्वपूर्ण बात जो कविता को कविता बनाती है, वह है – उसमें तैरते भावों का पाठक के साथ ऐसा अपनत्वपूर्ण संवाद - जो पाठक के उदात्त भावों को स्पर्श कर, उन्हें स्पंदित करे। उस उदात्त मनस्थिति में कविता, पाठक के ह्रदय को अपनी गिरफ्त में इस तरह ले लेती है कि कुछ देर बाद सामान्य स्थिति में आने पर भी, उसकी छाप अंतर्मन पे लंबे समय के लिए अंकित हो जाती है। सच्ची और अच्छी कविता का यह एक सहज गुण है। लेकिन तमाम सहजाताओं से भरी, निर्मल निश्छल कविता आज, पवनकरण और अनामिका जैसे रचनाकारों के कारण इतनी असहज और विकृत हो गई है कि रुग्ण और विकलांग नज़र आती है। इन दोनों कवियों की ‘ब्रेस्ट कैंसर’ जैसे गंभीर और संवेदनशील विषय पर इतनी अश्लील और उथली कवितायेँ सामने आई कि उन्हें पढते हुए भी शर्म आती है। उनकी आलोचना में कलम चलाने में भी दिल पे जोर पडता है। किन्तु साहित्य सेवी और साहित्य प्रेमी होने के नाते, कविता जैसी सी सुकोमल और संवेदनशील विधा की रक्षा करना अपना फ़र्ज़ बनता है तो कितना भी दिल पे जोर पड़े, उसके रूप को नष्ट-भ्रष्ट करने वालों की कलम पे रोक तो लगानी ही पड़ेगी तदहेतु आलोचना अपेक्षित है। आज ज़माना कितना बदल गया है कि गलत बात कहने वाले सीना तान कर अभद्र बाते कहते नहीं हिचकते और सही बात के पक्षधर, दूसरों की गलती पे शर्म से गड़े हुए, लंबे समय तक संज्ञा शून्य से, उसके बारे सोचते बैठे रह कर, तब मन ही मन उन अभद्र बातो के उल्लेख के प्रति संकोच से भरे हुए, गलत का विरोध कर पाते हैं। एक कविता संग्रह में पवनकरण जी की कविता ‘स्तन’ और ‘ फरवरी २०१२ के ‘पाखी’ के स्त्रीलेखन विशेषांक में अनामिका जी की ब्रेस्ट कैंसर’ पर कविता पढ़ी और पढ़ कर मेरे दिलो-दिमाग का ज़ायका बिगड गया। क्योंकि उनमें कैसर पीड़ित महिला के प्रति न करुणा, न सहानुभूति, या उसकी पीड़ा का उल्लेख या कैंसर जैसे भयंकर रोग से मुक्ति दिलाने के लिए दुआ और प्रार्थना जैसा कोई कोमल भाव....अगर कुछ था तो बस अश्लीलता, कामुकता का अजस्र बहाव तथा थोथी और छिछली बातों का भंडार। ब्रेस्ट कैंसर हो या किसी अन्य अंग का कैसर, उससे पीड़ित व्यक्ति जीवन-मरण की जिस उहापोह , पल-पल जिस भावनात्मक दारुण पीड़ा तथा एक निर्मम शून्य और सन्नाटे से गुज़रता है, उसे बड़ी शिद्दत के साथ कविता में इस तरह उतारा जा सकता है कि वह पाठक की सम्वेदनाओं को स्पर्श करता हुआ, उसे भोगने वाले की पीड़ा का एहसास कराए। लेकिन इन दोनों कवियों की कवितायेँ जिस बेदर्दी से पाठक की और ब्रेस्ट कैंसर पीडित की आशाओं पे पानी फेरती हुई, कुत्सित भावों का तमाशा पेश करती हैं, उसे पढकर वितृष्णा होती है। ब्रेस्ट कैसर एक ऐसा शब्द है, ऐसा विषय है, ऐसा रोग है जिससे पीड़ित इंसान के बारे में सुनकर मन में संवेदना जागती है. अधिकतर लोग संवेदना को जानते तो हैं, पर ‘समझते’ नही। संवेदना यानी ‘दूसरे की वेदना को समान रूप से अनुभूत करना’ और जब वह कविता में उतरे तो – उसे पढ़ कर पाठक संवेदना के माध्यम से, मानसिक और भावनात्मक रूप से – कैसर ग्रस्त इंसान की वेदना से तादाम्य स्थापित कर सके। लेकिन खेद है कि पवनकरण और अनामिका जी , जैसे संवेदनशील कवियों ने इस विषय पर, बड़े ही स्थूल स्तर पे कवितायेँ लिखी। वे कवितायेँ इतनी विरूप और कुरूप है कि पाठक को संज्ञा शून्य सा कर देती है। उन्हें पढ़ कर मैंने तो अपने को बीमार सा महसूस किया। उनमें उदारता से उडेले गए अभद्र विचारों और अभिव्यक्ति के बोझ तले मेरा जैसे सांस लेना मुहाल हो गया। ये कवितायेँ हैं या कि औघड़ता का नग्न तांडव ? हिन्दी साहित्य का इतिहास उठाकर देखें तो कविता क्रमश: छायावाद , हालावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यंजनावाद (इटली के दार्शनिक क्रोशे की देन) से होती हुई ‘नई कविता ’ के रूप में ढली और तदनंतर ‘अकविता’ बनती गई, जिसमे नए भावों, नए तथ्यों, नए विषयों को ‘यथार्थ’ की भूमि पे प्रतिष्ठित किया गया । यथार्थ चिंतन ने आधुनिक काल के कवियों को नवीन विषयों की परिकल्पना की विशेष प्रेरणा दी। कवियों ने आस पास की परिस्थितियों से प्रेरित होकर व्यक्ति सत्यों को ‘इस ‘नई कविता और ‘अकविता’ में प्रस्तुत किया। 3इसका परिणाम यह हुआ कि उनका सोच, चिंतन, उनकी अभिव्यक्ति, चित्र सभी यथार्थ से अनुस्यूत हो गए। तदनंतर यथार्थ का विकृतिकरण होने लगा और यथार्थवाद का यह दर्पण अतियाथार्थाता से ही किरच-किरच हो गया। कविता अपशब्दों की सीमा तक पहुँच गई। अज्ञेय जी ने जिन आदर्शों की प्रतिष्ठा की थी, ‘नई कविता’ और ‘अकविता’ उनको छिन्न-भिन्न कर उग्रता से फूट निकली। आज २१ वी सदी में वही उग्रता और अपशब्द पवन करण और अनामिका जी की कविताओं में और भी भयंकर रूप से अश्लील और अभद्र होकर मुखर हुए हैं और ‘ब्रेस्ट कैंसर’ पर कविता के रूप में हमारे सामने आए। ये तो थोड़े से ही उदाहरण हैं। कविता में शास्त्रीय दृष्टि से रस हो न हो, लय हो ना हो, लेकिन रस का मूल उत्स ‘बिम्ब’ ज़रूर होना चाहिए। अनुभूति जितनी जीवंत, तीव्र और सजीव होगी, बिम्ब उतना ही स्वच्छ और प्रभावशाली होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कविता में छंद नही हैं; भावनात्मक लय भी नहीं है, तो कम से कम बिम्ब तो हो। लेकिन पवनकरण और अनामिका जो परिपक्व कवि हैं, उनकी कविताओं में बिम्ब तक नहीं है। क्यों ? जब अनुभूति की तीव्रता, प्राणवत्ता ही इन कविताओं में नहीं है, तो बिम्ब कहाँ से उभरेगा ? इन दोनों ही कवियों की इस समानता की दाद देनी पड़ेगी कि दोनों में किसी को भी कैंसर रोग से पीड़ित इंसान के मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक कष्ट व पीड़ा से कोई सरोकार नहीं अपितु उरोजों का कामुक, अश्लील चित्रण करना, उनसे ओछा वार्तालाप करना ही, उनका ध्येय प्रतीत होता है। ब्रेस्ट कैंसर के बहाने कविता में शुरू से अंत तक ब्रेस्ट यानि स्तन पर ही उनकी दृष्टि करुणा या चिंतन के तहत नहीं अपितु वासना और विकृति के तहत गडी नज़र आती है। मुझे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, उनके तो शब्द बोल रहे हैं, उनकी अभिव्यक्ति तरह तरह के फूहड उपमानों के साथ उरोजों को प्रस्तुत कर रही है जिससे उनकी कविताएं, एक पोर्न चित्रावली आँखों के सामने चलाने लगती है। जब बोल्ड मूवीज बनती हैं तो कम से कम सेंसर बोर्ड उन्हें एडल्ट मूवीज की श्रेणी में रख कर ‘ए’ सर्टिफिकेट तो देता है। परन्तु यहाँ तो इन कविताओं के लिए न तो कोई सेंसर बोर्ड बना है और न किसी तरह का ‘ए’ सर्टिफिकेट है। सिनेमा जैसी विधा में तो खुली अश्लीलता एकबारगी ‘ए’ सर्टिफिकेट के तले चल भी जाती है जबकि आलोचना उसकी भी खूब होती यहाँ तक कि सेंसर बोर्ड की मति पे भी सवाल उठाए जाते है, लेकिन कविता जैसी सुकोमल, भावप्रधान उदात्त विधा में अश्लीलता न तो अनुमित होती है और न स्वीकार्य। फिर भी कुछ जांबाज़ कवि कविता का चीर हरण करते रहते है और वरिष्ठ कवि वर्ग सहनशील बने देखते रहते है। अच्छाई राम की तरह रावण का यानी बुराई का सामना करने को तैनात क्यों नहीं हो जाती ? क्या बात आड़े आती है – मुझे तो यह बात आज तक समझ नहीं आई ? एक आदमी सामने खडा भद्दी गलियां दे रहा है, आप उसे उसके ही जोड़ की गालियाँ मत दीजिए, परन्तु साहस से उसका मुँह कम से कम इस दबंगई से तो बंद कीजिए कि गाली देने की बात तो बहुत दूर, मुँह खोलना भी भूल जाए। अब दोनों कविताओं की स्कैनिंग कर, उन पर अलग अलग थोड़ा विस्तार से सोच-विचार करना होगा । पवन करण नारी के वक्षस्थल को शहद का छत्ता और दशहरी आमो की ऐसी जोडी बताते हैं जिनके बीच वे जब तब अपना सर धंसा लेते हैं या फिर उन्हें कामुक की तरह आँखें गड़ा कर देखते रहते हैं – ये कैसर रोग को, स्तन पर झेल रही महिला के लिए उनकी सम्वेदनशील नज़र है....वाह क्या नज़र है , क्या संवेदनशीलता है।। उन्हें कैसर रोग से ग्रस्त महिला के दुःख और अवसाद से कुछ लेना-देना नहीं – वे तो उरोजों के आकार और आकृति को देख रहे हैं - उन की उपमा शहद के छत्ते और आम से दे रहे हैं। ‘रोगी स्तनों’ की इस तरह की उपमाएं हमने तो पहली बार पढ़ी। फिर उनसे खेलने की बात करते हैं । इससे अमानवीय और निकृष्ट बात और क्या हो सकती है ? यदि वे अपने बचाव में अब यह दलील देने लगे कि वे श्रृंगार काल के कवियों की तरह श्रृंगार रस से ओत प्रोत कविता लिख रहे हैं, तो मैं उन्हे बताना चाहूगी कि श्रृंगार काल के बिहारी, केशव, आदि कवियों ने, संस्कृत के कालिदास ने श्रृंगार रस का बड़ा ही शालीन और भद्र चित्रण किया है - पवन जी की तरह वितृष्णा पैदा करने वाला नहीं। उसे पढकर सौन्दर्यपरक श्रृंगार की अनुभूति होती है ना कि पोर्न साहित्य की। सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यहाँ ये है कि श्रृंगार काल के कवियों ने उन कमनीय नायिकाओं का वर्णन किया जो कैंसेर जैसे जान लेवा रोग से ग्रस्त नहीं थी और जीवन की जंग नहीं लड़ रही थीं। वरना वे संवेदनशील कवि, ऎसी पीड़ित नारी का, जो ऐसे रोग के कारण भावनात्मक और मानसिक अवसाद व हताशा से गुजर रही होती है, उसका कभी श्रृंगारपरक वर्णन न करते – कामुकता भरी अभिव्यक्ति तो बहुत दूर की बात है। उसकी वेदना, पीड़ा पर ही उनकी दृष्टी केंदित होती। यहाँ हमारे परम आघुनिक बिंदास कवि ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित नारी के रोग की व्यथा-कथा कहने के बजाय, उसे खिलौना कह कर , नारी का मखौल उड़ा रहे हैं। उसके प्रति सहानुभूति, करुणा या सम्वेदना से उन्हें कोई लेना देना नहीं। आज नारी विमर्श के समर्थक रचनाकार यदि नारी पर, इस तरह की अश्लील रचनाएँ समाज और साहित्य को भेंट चढाने लगेगें तो शीघ्र ही समाज और साहित्य में भी कैंसर के जाले झूलते नज़र आयेगें। ‘साहित्य’ सदियों से - समाज और मानव-जाति को स्वस्थ दिशा, स्वच्छ दृष्टि देता आया है – उनका ‘हित’ करता आया है, तभी ‘साहित्य’ नाम से जाना गया। ऐसा नहीं कि साहित्य ने जीवन में घट रहे यथार्थ को नकारा, साहित्य ने उसका भी चित्रण किया, लेकिन जीवन में वरेण्य क्या है, समाज को होना कैसा चाहिर, वह आदर्श प्रस्तुत करके सदैव सद् मार्ग का सन्देश पाठकों को दिया, सही सोच दी, दिशा दी । लेकिन आज साहित्य के कुछ सर्जक समाज को सही दिशा देने के बजाए, सही दिशा से भटका रहे हैं। सत्यम, शिवम, सुन्दरम देने के बजाए, असत्यम, अशिवम और असुन्दरम दे रहे हैं। तभी तो पवन करण और अनामिका, चिंता उपजाने वाले, हँसी-खुशी छीन लेने वाले, शरीर को क्षत-विक्षत कर देने वाले जानलेवा रोग – ‘कैंसर’ से ग्रस्त नारी पर, एक बेढब कविता, नारी- विमर्श का मन्त्र गुनगुनाते हुए, शान के साथ परोस रहे हैं। आकाश की ओर सर उठा कर, जैसे कोई विजय गीत गा रहे हो। ऎसी कविता लिखने का क्या औचित्य है ? वे इस बात का ज़रा खुलासा करें । उनका संवेदनशील कवि-मनस कहाँ खो गया है जो एक बार भी उन्हें उस नारी की पीड़ा , उसकी मानसिक यंत्रणा और भावनात्मक खालीपन की याद नहीं दिलाता, जो शरीर के किसी भी अंग के अलग कर दिए जाने पर उपजता है और दिल में घर करके बैठ जात्ता है। दूसरे की जान पे बनी है और इन दोनों रचनाकारों को हँसी मजाक सूझ रहा है तभी पवन करण के लिए उरोज एक खिलौना हैं खुशी का साधन है और अनामिका उनके शरीर से विलग हो जाने के बाद – उन्हें मानो पछाड़ देकर, खुश होती हुई, उन पे व्यंग कस रही है – ‘कहो कैसी रही ...?’ एक हिस्से को गँवा देने के बाद कैंसर रोग पीड़ित नारी के जीवन में हमेशा के लिए जो ‘कमी’ आ जाती है – पवन जी उस कष्ट का कोई उल्लेख न करके, अपने उस नारी के साथ रिश्ते में आई ‘कमी’ का रोना रो रहे हैं। उनका उस नारी के साथ रिश्ता कितना उथला था कि एक अंग का उच्छेद होते ही – रिश्ता भी उच्छिन्न हो गया। बहुत खूब। पवन करण जी की ‘स्तन’ कविता , सीधी सीधी एक पोर्न कविता है जिसका भावों, संवेदना और (सहा) अनुभूति आदि से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं। अचरज मिश्रित बात यह है कि पवन करण जी की यह कविता ‘ब्रेस्ट कैंसर’ को झेलने वाली ‘संगीता रंजन’ को समर्पित है। पहले भयंकर ‘ब्रेस्ट कैंसर’ को झेलना, फिर इस भयंकर कविता को झेलना – कैसा लगा होगा उनको ? उनकी भावनात्मक और मानसिक वेदना का तो कविता में कहीं छींटा भी नहीं महसूस हुआ उलटे एक खिलंदडी के से भाव से यह कविता लिख कर उन्हें समर्पित कर दी गई। उनकी आतंरिक पीड़ा और वेदना को महसूसते हुए यदि इस कविता को लिखते तो, इसी कविता की बात ही कुछ और होती। पवन करण जी ने अपनी स्थूल सोच कविता में इस बेदर्दी से थोपी है कि उस में चित्रित नारी को अपनी तरह स्थूल दृष्टि वाला बना दिया है। तभी तो वह पुरुषवादी नज़र से अपने अंगों देख कर, परवर्ट बनी हर्षित होती दीखती है और बाद में एक हिस्से के कट जाने पर उसका दुःख भी उसी स्थूलता के साथ पाठक के सामने आता है – भावनात्मक तल पर नहीं। कहा गया है कि – Our any creation reflects our thoughts, our sensitivity, our insight and much much more. जैसे, यदि हम नारी- विमर्श पर उद्भ्रांत जी की कवितायेँ पढ़े तो पायेगे कि उन्होंने नारी ह्रदय को, उसके स्वभाव, उसकी मानसिकता को जिस संवेदनशीलता और बारीकी से समझा हैं और अपनी कविताओं में चित्रित किया है, वह बेहद भाव प्रवण , मनोवैज्ञानिक और मन मोहक है तथा पाठक मन पे अमिट छाप छोडता है। उनकी कविता ‘एक औरत’ की कुछ पक्तियां द्रष्टव्य हैं – एक माँ का/एक पत्नी का/दायित्व निबाहते,/ कष्ट उठाते/रोते, झींकते/इसके भीतर भी/प्यार से लबरेज एक दिल था/वक्त ने और/ज़िंदगी की विद्रूपताओं ने /उसे कहाँ छुपा लिया इसी तरह एक अन्य कविता : समुद्र तट पर खडी / एक स्त्री को देखा मैंने / तो हैरान रह गया / क्योंकि अगले ही क्षण/स्त्री परिवर्तित हो गई समुद्र में .. उद्भ्रांत जी की ये पंक्तियाँ और अभिव्यक्तियाँ नारी में छुपी असीम क्षमताओं की बात करती है , उसके मन की पीड़ा, खीज , निराशा और प्यार की बात करती हैं। इस दृष्टि से यदि हम पवन करण जी की कविता का जायजा ले तो, उसमें संवेदना, चिंतन और अंतर्दृष्टि जैसी किसी चीज़ के दर्शन नहीं होते। होते भी कैसे, उस सोच, उस कुत्सित भावना के ही तो दर्शन होगें जो उनके अंतर्जगत में तैर रही है। रचनाकर जैसा हैं, रचना के आईने में उसका वैसा ही तो अक्स दिखेगा। सोच अच्छी और बुरी कैसी भी हो सकती है। उस पे किसी तरह की पाबंदी न कभी लगी है, न लगेगी- मनोवैज्ञानिक, मनोविश्लेषक, समाजशास्त्री, साहित्यशास्त्री सभी इस बात पर एकमत हैं। जब कायनात में अच्छे और बुरे का द्वन्द्व है तो मानव स्वभाव में भी होगा। इसलिए ऐसा नहीं हैं कि अच्छे इंसान में सब अच्छा ही भरा होगा और बुरे में सब बुरा ही होगा। लेकिन देखा यह जाता है कि इंसान में कौन से भाव और विचार – सकारात्मक या नकारात्मक – बहुतायत से स्पंदित रहते है, मुखर रहते हैं। भावों के प्रकार की इस मुखरता से ही उसके और उसकी गतिविधियों, क्रिया-कलापों का सकारात्मक व उत्तम होना सिद्ध होता है। यहाँ वर्त्तमान सन्दर्भ में विचारणीय यह है कि रचनाकार का सृजन के प्रति, समाज के प्रति, जीवन के प्रति एक उत्तरदायित्व बनता है, उसका एक नैतिक कर्तव्य होता है कि जो भी सकारात्मक, स्वस्थ, शिव और सुन्दर है, उसे जीवन और समाज के मद्दे नज़र, सबसे पहले सृजन में उतारना, फिर सृजन के माध्यम से समाज और जीवन में उतारना तथा इस तरह, अस्वस्थ और नकारात्मक का निराकरण करना। हमारे आसपास समाज में, जीवन में जो भी नकारात्मक रात और दिन की तरह आता है, जाता है, उसको नज़रंदाज़ नहीं करना, वरन उसका भी उल्लेख करना, उसके विषाक्त प्रभावों को दर्शाना और उसके साथ-साथ कदम-दर- कदम सकारात्मक व स्वच्छ सन्देश पे सृजन की इति करना। जिससे मानव जीवन और उससे रचा हुआ समाज भटके नही वरन बेहतर से बेहतर बने। हमारे धर्मशास्त्रों में हमारे हर छोटे से छोटे और बड़े से बड़े कार्य का उद्देश्य सुख और शांति की उपलब्धि बताया गया है। इसलिए लेखक जो समाज का प्राणी है, उसका यह नैतिक और रचनात्मक कर्तव्य बनता है कि वह अपनी लेखनी से जो भी ‘सकारात्मक’ है, वह पाठकों को, समाज को दे – न कि नकारात्मक, अश्लील और भोंडी चीजे इधर उधर छितरा कर वातावरण खराब करे। इसलिए यदि कोई लेखक मात्र एकांगी रूप से कुत्सित और अभद्र बिंदुओं पे केंद्रित होकर, उनका यशगान करे, उनकी महिमा गाए, तो समझिए कि उसकी लेखनी अस्वस्थ है। ऐसे रचनाकारों की जमात एक दिन साहित्य और समाज को ले डूबेगी। इस सन्दर्भ में पवन करण की कविता ‘स्तन’ जिस ठंडेपन से स्त्री मांसलता को पेश करती है, वह निहायत ही खेद का विषय है। कोई भी विचारशील ‘सहृदय’ – जिसमे लेखक, पाठक, तथा अन्य सम्वेदनशील सामजिक आते हैं – इस तरह के अपसंस्कृत लेखन का स्वागत नहीं करेगा। ऐसे लेखन का अपनी-अपनी कलम चला कर कड़ाई से विरोध होना चाहिए। स्त्री और उसकी देह को एक ‘आब्जेक्ट’ के रूप में खिलौने की तरह देखना, उसके सारे अंग बरकार हो, सुन्दर हो तो उसे ‘उपयोगी’ करार देना और उसका कोई अंग कैंसर रोग के कारण छिन्न हो कर छीन जाए तो उसे अनुपयोगी घोषित कर देना – और उस नारी से दूरी जताना , नारी जाति का सरासर अपमान है ...? नारी मात्र एक देह ही क्यों – वह ‘भावना’ और ‘संवेदना’ पहले है। नारी भावना के तल पे अधिक जीती है न कि शरीर के तल पे। शरीर के तल पे तो वह पुरुष के द्वारा ही लाई जाती है – उसमें भी उसके भाव उभर-उभर आते हैं। पवन करण जी द्वारा नारी पर अपनी स्थूल मांसल दृष्टि को थोपना और उसके सुकोमल शरीर से अपनी सोच जैसी एक संवेदनाहीन, लज्जाविहीन स्त्री की सर्जना करना और फिर कैसर की सर्जरी के बाद, जब वह एक अंग खो बैठे तो उससे ढाढस बंधाने के बजाए, उसकी उपेक्षा करना और इन सब बातों को निर्ममता से कविता के रूप में पन्नों पे घसीटना... कहाँ तक उचित और मानवीय है ? क्या यह भावनात्मक नृशंसता नहीं है ? या यह पवन जी पे आज की उपभोक्ता संस्कृति का प्रभाव है ‘यूज एंड थ्रो’। पवन करण जी की तरह ही अनामिका जी की कविता ‘ब्रेस्ट कैंसर ‘ की शुरुआत इस तरह होती है : दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने /दूध पिलाया मैंने /हाँ बहा दी दूध की नदियाँ /तब जाकर मेरे इन उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं में जाले लगे / इन पक्तियों से दूध ले साथ ममता और स्त्रीत्व कम, दंभ ज्यादा उमड़ता नज़र आता है। बार-बार ‘दूध पिलाया मैंने, दूध पिलाया मैंने, ‘ की उद्घोषणा करके, वे क्या कहना या समझाना चाहती हैं – यह समझ नहीं आया। कम से कम मुझ मंदमति को तो स्पष्ट नहीं हुआ। उन्हें भी स्पष्ट है या नहीं, वे जाने। फिर यह अभिव्यक्ति ‘तब जाकर मेरे इन उन्नत पहाड़ों में जाले लगे ‘ – इससे तो ऐसा अर्थ ध्वनित हो रहा है कि वे कैंसर रूपी जाले को गले लगाने के लिए कब से प्रयास रत थी और प्रतीक्षा में थी, तब कहीं जाकर एक दिन उनकी मेहनत रंग लाई और उन्नत पहाड़ों में कैंसर घर कर पाया। यह कैसी कामना है ? कौन स्त्री चाहेगी कि उसके वक्षस्थल में, जो कि ममता का उत्स माना जाता है – वह कैंसर जैसे रोग से ग्रस्त हो जाए। यह विक्षिप्तता की निशानी है या ज़बरदस्ती शहीद होने का भाव ? कैसर को इस तरह निमंत्रण ? अनामिका जी की ये पंक्तियाँ तो यह ही संवाद करती नज़र आई। इसके आगे वे लिखती हैं : ‘कहते हैं महावैद्य/ खा रहे हैं मुझको ये जाले / और मौत की चुहिया मेरे पहाड़ों में इस तरह छिप कर बैठी है/ कि यह निकलेगी तभी/ जब पहाड़ खोदेगा कोई....’ हिंदी में एक बड़ा पुराना और प्रसिद्ध मुहावरा है – ‘खोदा पहाड़ निकला चूहा /निकली चुहिया ‘ उस मुहावरे का कविता में प्राकारंतर से अनामिका जी ने प्रयोग करके जो व्यंजना भाव लाना चाहा है, वह तो कहीं खो गया और अभिधा अर्थ ही चुहिया की तरह फुदक फुदक कर सामने आया। ‘खोदा पहाड़ निकला चूहा’ में चूहे को एक अमहत्वपूर्ण, निरर्थक वस्तु के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। जब कि अनामिका जी द्वारा मुहावरे के तहत चुहिया को कैंसर जैसे भारी भरकम गंभीर रोग के उपमान के रूप में प्रयुक्त करना एक तरह का विरोधाभास पैदा करता है। पहाड जब खुदे और कैंसर रोग ना निकले, तब यह मुहवारानुमा अभिव्यक्ति अधिक समीचीन लगती लेकिन यहाँ तो वह बहुत ही अटपटी और अप्रासंगिक लगती है। फिर अनामिका जी ने जो यह लिखा है कि महाववैद्य यानी ‘कैंसर स्पेशलिस्ट’ जब पहाड खोदेगा.. जैसे एक डाक्टर / वैद्य हाथ में कुदाल लिए खोदने के लिए तैयार खड़ा हो – ऐसा हास्यास्पद बिम्ब ज़ेहन में बनता है – डाक्टर ना हुआ बेचारा खुदाई करने वाला मज़दूर हो गया.....। खैर आगे वे अपनी तमन्ना का दूसरा फलक उघाडती हैं और लिखती हैं – ‘निकलेगी चुहिया तो देखूंगी मैं भी’.....इससे वीभत्स और रुग्ण मनोकामना क्या होगी कि शल्य चिकित्सा के बाद चीर फाड के कारण खून से सने उरोजों को वे सर्जरी प्लेट में देखने को बेताब होगीं। उनके शब्दों में - ‘खुदे फुदे नन्हे पहाड़ों को ‘..... मतलब कि जो उन्नत से नत बने सर्जरी प्लेट में पड़े होगें...कितनी अमानवीय कल्पना और कामना है कवयित्री की। आगे उनसे उरोजों से संवाद की बात लिखती हुई कहती हैं – कि वे हंस कर चिहुक कर उन निर्जीव स्तनों को मुँह चिढाती हुई पूछेगी – ‘ हेलो, कहो, कैसी रही ??’ ‘कैसी रही’ यह अभिव्यक्ति कितनी ओछी और छिछोरी है। अपने शरीर के अंग को क्या इस तरह - पहले चुनौती और फिर मुँह चिढाना – किया जाता है ? उन ममता के स्रोतों से क्या अनामिका जी की कोई शर्त लगी थी कि पहले वे उनमे जाले लगाने की कामना करती हैं; जब जाले लग जाते हैं तो उन्हे चीर फाड कर खोदने की चुनौती देती है और जब वे शरीर से अलग कर दिए गए तो उनसे ‘हैलो, हाय’ कहती हुई तंज से बात करती हैं कि देखो मैंने तुम्हें कैसी पछाड़ दी और तुम्हें खुदवा कर , उन्नत से नत, क्षत विक्षत कर दिया। ‘अंतत: मैंने तुमसे छुट्टी पा ली ‘ – इस पंक्ति तक आते आते कवयित्री की इन ममता के स्रोतों के प्रति वो गर्वोक्ति / दम्भोक्ति छूमंतर हो गई जो पहली दो पंक्तियों में उन्होंने जताने की कोशिश की थी – ‘दूध की नदियाँ बहा दी मैंने, दूध पिलाया मैंने’ आदि आदि। जिन्होंने ‘प्राणतत्व’ दुग्ध की नदियाँ बहाई , ज़ाहिर हैं नन्हे शिशुओं को जीवन दान दिया, उनकी भूख तृप्त की – अब उन ममता के स्रोतों के लिए कोई कृतज्ञता नहीं, उन्हें खोदने का कोई गम नहीं, पीड़ा नहीं, जो नारी के स्त्रीत्व और ममता का प्रतीक माने गए हैं, उन्हें वे कुछ पंक्तियों में ‘आफत और बला’ के रूप में देखती हैं; वे – जो ‘दस वर्ष की उम्र से उनके पीछे पड़े थे’ / जिनकी वजह से दूभर हुआ सड़क पे चलना ...’ ये कैसी कुत्सित भाव उकसाने वाली अभिव्यक्तियाँ हैं ? ये तो पाठक के दिमाग में जानबूझकर कामुक बिम्बों को उभारना हुआ। फिर लिखती है ‘बुलबुले अच्छा हुआ फूटे’। बुलबुले फोडने के बजाय यदि वे चुहिया के मरने, निर्जीव होने की बात पर कलम अधिक केंद्रित करती – तब तो कैंसर से मुक्ति पाने की बात पाठक तक पहुँच सकती थी। पर वे तो पवन करण जी कि तरह ही, उन्नत पहाड़ों पे शुरू से आखिर तक दृष्टि गडाए हुए हैं, १० उन्हीं से उनका तल्ख़ और तुर्श संवाद चल रहा है। कभी उन्हें पहाड़ तो, कभी धराशायी खुदे- फुदे पहाड, तो कभी बुलबुले बना रही हैं। इतना ही नहीं, अंत तक पहुँचते पहुंचते वे ‘ब्लाउज में छिपे तकलीफों के हीरे ‘ बन जाते हैं, तकलीफ अनामिका जी को कैंसर से होनी चाहिए थी ना कि वक्षस्थल से। कोसना ही था तो तरह तरह से वक्षस्थल को कोसने के बजाए, रोग को कोसना चाहिए था। इस हीरे की परिकल्पना ने मुझे चौंकाया कि – ये नवीन इतना कीमती आरोपण किस लिए। शीघ्र ही आगे की पंक्तियों से खुलासा हुआ – कि स्मगलर और हीरे के मध्यम से स्तनों को हीरा ज़रूर कहा गया लेकिन ‘अवैध हीरे’’ जिन्हें रखना खतरे से खाली नहीं , जो अवैध व्यापार द्वारा हासिल किए जाते है। अब आप ही सोचिए यह क्रिमिनल टाइप की उपमा – शरीर में सहज रूप से विकसित ‘ममता के, स्त्रीत्व के प्रतीक’ के लिए शोभनीय है ? वे जो शिशु और माँ के बीच प्रगाढ़ रिश्ते का आधार होते हैं, जीवन स्रोत होते हैं – ‘दूध का क़र्ज़ चुकाना है, माँ के दूध की कसम, माँ का दूध पिया है तो सामने आ (ताकत और चुनौती का प्रतीक) इन उक्तियों के उत्स हैं, उन्हें ये इस तरह हिकारत की नज़रों से देख रही हैं कि जैसे वे सच में स्मगल्ड हों। जिन्हें वे इतने वर्षों तक धरोहर की तरह सहेजती रहीं। लेकिन कैंसर लगे चमक खो देने वाले हीरों को तो ‘स्मगलर डान’ भी नहीं लेगा – जिसकी वो अमानत थे। वो इनसे लगे हाथ अगर यह पूछ ले कि इन्हें कैंसर कैसे लगा , इन हीरों की चमक कहाँ उड़ा दी गई ? सम्हाल के नहीं रखा गया इस धरोहर को, तब क्या होता ? अनामिका जी नारी होकर इतनी संवेदना हीनं करुणा विहीन कविता ‘ब्रेस्ट कैंसर’ जैसे गंभीर विषय पर कैसे लिख सकी, मैं तो यह सोचकर हैरत में हूँ। उनकी कविता में न तो कैंसर के प्रति क्षोभ, न रोगग्रस्त अंग के प्रति ममता, अपनेपन का भाव, कैसर द्वारा उसे छीन लिए जाने पर, न अवसाद, न निराशा, उलटे उत्सव का भाव, हँसी, ठिठोली है। समूची कविता में नज़र आती है तो पुरुष वादी मांसल नज़र, स्थूल दृष्टि , वैसी ही शब्दावलि,। अंत की पंक्ति में वे कहती हैं - ‘मेरी स्मृतियाँ ‘वे कौन सी स्मृतियों की बात कर रही हैं – जो दस वर्ष की उम्र से उनके ज़ेहन में उरोजों के साथ –साथ उभरी थी और तब से वे उनसे पीछा छुडाने को आतुर थी, सिस्टम से बाहर करने को बेचैन थीं ? क्योंकि विकसित होने पे उरोज स्मगल्ड हीरे बन गए थे जिन्हें छुपाना मुश्किल हो रहा था – कितनी बेतुकी उपमा है यह। ‘दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया’ - इससे कवयित्री का क्या तात्पर्य है ? इसका ज़रा खुलासा करें वें । ११ ममता की स्मृतियों को दूध पिलाया कहा होता; तो एकबारगी बात गले उतरती , एक सलोना सुंदरा बिम्ब भी बन कर आता। इसी तरह ‘दूध की नदियाँ बहा दी’...यह भी बड़ी उग्रवादी सी अभिव्यक्ति लगी। जैसे दुश्मन का सर, हाथ पैर काट कर कोई खून की नदियाँ बहा दे और फिर गर्व से कहे कि मैंने दुनिया के लिए खून की नदिया बहा दी और सबका भला किया। इस तरह कि उक्तियाँ अभिव्यक्तियाँ तो वीर रस, रौद्र रस की कविताओं में शोभा देती हैं लेकिन वक्ष स्थल से दूध की नदियाँ बहा दी – इससे एक विचित्र सा विरोधी बिम्ब बनता है बल्कि बनता भी नहीं, बनते-बनते पीछे लौट जाता है। ऐसा है कि कविता जब उचित बिम्ब न बना सके, भावों को न जगा सके , सकारात्मक सोच स्पंदित न कर सके, शीर्षक के साथ तालमेल में न हो – ‘ब्रेस्ट कैंसर ‘ इन दो शब्दों में से ब्रेस्ट के ही ऊपर अधिक नज़र हो, कैसर के ऊपर नाम मात्र की पंक्तियां हों – रोगी के अवसाद , दुःख, कष्ट, पीड़ा की तस्वीर दिल में न बना सके , तो वह कविता नही अपितु अनर्गल, अर्थहीन प्रलाप होता है। पवन करण और अनामिका जी की कविता इसी श्रेणी में आती हैं। पवन करण और अनामिका जी की एक गंभीर विषय पर ऎसी उथली, छिछली और भोंडी कविताओं को पढ़ कर मेरा दिल अवसाद और चिंता से भर गया कि यह कैंसर रोग अब शीघ्र ही साहित्य को लगने वाला है और साहित्य में भी इसने सबसे पहले ‘कविता कामिनी’ को बेदर्दी से धर दबोचा है। साहित्य के महावैद्यों से अपील है कि वे अविलम्ब कविता में लगने वाले इन जालों की रोक थाम के उपाय करें; वरना धीरे - धीरे यह कैंसर रोग कविता से होता हुआ सम्पूर्ण साहित्य में लग जाएगा।

दीप्ति गुप्ता, मोबाइल : ९८९०६ ३३५८२

मानसिक सुलभ शौचालय

दामोदर दत्त दीक्षित

राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ (जून, 2012) ने सम्पादकीय ‘मेरी तेरी उसकी बात’ में पवित्र वचन उचारे कि उन्हें मन्दिरों के नाम पर आध्यात्मिक शौचालय हर जगह मिल जाते हैं जहाँ लोग अपने मानसिक विकारों, पापों, प्रतिशोधों और अपराधों की विष्ठा का विसर्जन करते हैं और अपने सपनों और आकांक्षाओं के लिए दुआ माँगते हैं। मन होता है कि इन सारे मन्दिरों और मठों पर ‘मानसिक सुलभ शौचालयों’ के बोर्ड लगा दिए जाएँ। सम्पादकीय पढ़कर राजेन्द्र जी के अनुयायियों, अनुगामियों, शिष्यों, भक्तों और चरणचुम्बकों - जिन्हें चाटुकार ब्रिगेड में श्रेणीबद्ध किया जा सकता है - को करेन्टानुभूति हुई। ये लोग लात के साथ-साथ बात पकड़ने में भी पटु थे, इस सीमा तक कि बात को पकड़कर लटक तक जाते थे। इन लोगों ने कोर गु्रप की बैठक बुलाई जिसमें संयोजक ने आधार उद्गार यों व्यक्त किया, ‘‘आप सबने जून, 2012 का सम्पादकीय पढ़ा ही होगा, परमादरणीय यादव जी ने लिखा है कि मन्दिर आध्यात्मिक शौचालय हैं जहाँ लोग अपने मानसिक विकारों, पापों, प्रतिशोधों और अपराधों की विष्ठा का विसर्जन करते हैं। साथियो, विचारणीय बिन्दु यह है इस महान वचनामृत के परिपे्रक्ष्य में हम लोगों का क्या कर्तव्य बनता है?’’ एक व्यक्ति ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की, ‘‘दोस्तो, यादव जी का कथन हमारे लिए ब्रह्मवाक्य है - ‘‘ब्रह्मवाक्यं जनार्दनः।’’ वह सम्पादकीय में मानसिक सुलभ शौचालय से बहुत प्रभावित नज़र आते हैं। जैसा कि आप सब जानते हैं, श्रद्धेय यादव जी में मानसिक विकारों, पापों, प्रतिशोधों और अपराधों की कमी नहीं है। कुछ के बारे में वह स्वयं गाहे-बगाहे ऐलान करते रहते हैं। महत्वपूर्ण प्रश्न है कि विष्ठा का वह स्वयं कहाँ विसर्जन करें?’’ कोर कमिटी के एक अन्य सदस्य ने अपना दृष्टिकोण रखा, ‘‘साथियो, यह पूज्य यादव जी से ही जुड़ा नहीं, हम लोगों के शिष्यत्व से जुड़ा, साहित्य, संस्कृति और विचार से भी जुड़ा मुद्दा है। पूज्य जी की विष्ठा का विसर्जन बहुत ज़रूरी है अन्यथा उन्हें कोष्ठबद्धता की शिकायत हो सकती है। अन्य शारीरिक विकार पैदा हो सकते हैं और जान पर बन आ सकती है।’’ सहमति का स्वर फूटा, ‘‘ठीक कह रहे हैं। श्रद्धेय यादव जी कुछ समय पहले गम्भीर बीमारी से उबरे हैं। उनके अमूल्य जीवन की रक्षा के लिए उपाय किए जाने ज़रूरी हैं, जल्दी किए जाने हैं।’’ एक सदस्य ने सुझाव दिया, ‘‘हिन्दुस्तान टाइम्स अपार्टमेन्ट्स के सामने फुटपाथ पर स्थित मन्दिर का उल्लेख सम्पादकश्री यादव जी ने किया है। उसी मन्दिर के बग़ल में सूर्योदयी संकल्प वाले यादव जी का भव्य मन्दिर बनवाया जाए जहाँ आते-जाते वह माथा टेका करें और बरसों से संचित अपने मानसिक विकारों, पापों, प्रतिशोधों और अपराधों की विष्ठा विसर्जित किया करें। इससे वह हल्का महसूस करेंगे, बीमारी का ख़तरा कम होगा।’’ कई आवाजें गूँजीं, ‘‘वाह, वाह ...! उम्दा सुझाव है ...! वल्लाह, क्या बात है ...!’’ शोर थमा, तो एक व्यक्ति ने टोका, ‘‘पर भाई साम्यवाद में तो धर्म को अफीम बताया गया है। साम्यवाद में विश्वास रखने वाले यादव जी और मन्दिर? अजीब नहीं लगेगा? यादव जी पाइप ज़रूर पीते हैं, पर अफीम नहीं खाते।’’ मन्दिर निर्माण का सुझाव देने वाले व्यक्ति ने कहा, ‘‘जैसे भारतीय चीज़ों का विदेशीकरण और विदेशी चीज़ों का भारतीयकरण होता है, वैसे ही साम्यवाद का भारतीयकरण क्यों नहीं हो सकता? यादव जी हमारे लिए पारस पत्थर सरीखे हैं, उन पर किया गया मन्दिर निर्माण धार्मिक कृत्य न होकर जनवादी कृत्य ही होगा। फिर, यह भी सोचिए, विष ही विष की दवा होती है, काँटा काँटे से ही निकाला जाता है। राजेन्द्रवाद के प्रचार-प्रसार के लिए और धर्मधुरन्धरों को उन्हीं की भाषा में जवाब देने के लिए मन्दिर निर्माण बहुत ज़रूरी है।’’ लोगों ने ध्वनिमत से सहमति व्यक्त की। एक व्यक्ति ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘इससे देश के मन्दिरमार्गियों का दिमाग़ ठिकाने आ जाएगा। उन्हें पता चल जाएगा कि उनके देवताओं की तरह हमारे पास भी एक महान् आत्मा है। यह भी कि हम हर चीज़ में उन्हें टक्कर देने की क्षमता रखते हैं- ये ख़ामोशमिजाज़ी तुम्हें जीने नहीं देगी, इस दौर में जीना है तो कोहराम मचा दो। मन्दिर से यादव जी की स्मृति भी चिरस्थायी रहेगी।’’ एक व्यक्ति ने सम्पादकीय से संकेत ग्रहण करते हुए कहा, ‘‘मन्दिर का नाम रखा जाए - ’राजेन्द्र यादव मानसिक सुलभ शौचालय।’ मन्दिर के सामने नामसूचक बड़ा-सा साइनबोर्ड लगाया जाए जिसमें पाइप पीते, सिर को तिरछा किए राजेन्द्र जी का फोटो भी होगा। फोटो से स्पष्ट हो जाएगा कि यादव जी का असली मन्दिर यही है। लोग नक्कालों से सावधान हो जाएँगे।’’ ‘‘पर मन्दिर के लिए मूर्ति कहाँ से आएगी?’’ ‘‘वहाँ से तो नहीं ही जहाँ से देशी नेताओं की मूर्तियाँ बनवायी जाती हैं। यादव जी की मूर्ति विदेश से मँगायी जाएगी। रूस से मँगायी जाए, तो काफ़ी मँहगी पड़ेगी। समय भी ज़्यादा लगेगा। सैद्धांतिक तौर पर भी अब यह ठीक नहीं होगा। मूर्ति आएगी चीन से - काफी़ सस्ती होगी। नेपाल के रास्ते जल्दी और आसानी से आ जाएगी।’’ सदस्यों ने कोलाहल-ध्वनि से सहमति व्यक्त की। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कोहिमा तक फैली राजेन्द्र जी की चाटुकार बिग्रेड से चंदा वसूला गया और भव्य मन्दिर निर्मित किया गया। राजेन्द्र यादव घर से आते-जाते समय इस मन्दिर में आते और अपने मानसिक विकारों, पापों, प्रतिशोधों और अपराधों की विष्ठा विसर्जित कर हल्के होते और बहुरंगी सपनों और आकांक्षाओं के लिए दुआ माँगते। चाटुकार बिग्रेड के सदस्य भी मन्दिर आने लगे। वे भी अपने मानसिक विकारों, पापों, प्रतिशोधों और अपराधों की विष्ठा का विसर्जन करते, दुआ माँगते।

दामोदर दत्त दीक्षित 1/35, विश्वास खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ-226010 (उ0प्र0) मो0- 9415516721

शनिवार, 17 मार्च 2012

'रूह में ...' -ललित अहलूवालिया


अमरीका के फ्री-लैन्स लेखक आदित्य बक्षी के दिलो-दिमाग में ये सुखद आभास तब हुआ जब इंटर-नेट में एक पृष्ठ पर उसके आलेख 'पर्दे में रहने दो' पर लन्दन की उभरती हुई समीक्षक मिस श्रुति आप्टे ने सुघड़ शब्दों मेंखुल कर प्रशंसनीय प्रतिक्रिया दी। विषय स्त्री-पुरुष केप्रेम से नि:सृत होने वालीवेदना, और अंतत: प्राप्त होने वाले आत्मिक-आनंद की अनुभूति पर आधारित था। आदित्य के आलेख की सराहना हुई सो हुई, किन्तु भरपूर ख़ूबसूरत शब्दों से लिप्त श्रुति की प्रभावशाली समीक्षा ने उस पर ऐसे चार-चाँद जड़ दिए कि वो पाठकों के दिलों पर बुरी तरह से छा गई। कुछ दिनों में बात आई-गयी हो गई, और आदित्य हमेशा की तरह दैनिक कार्यों में
व्यस्त हो गया; किन्तु समीक्षा में अभिव्यक्त श्रुति के विचार और दिल को बांध लेने वाले शब्द उसके मस्तिष्क में खलबली मचाते रहते। एक दिन जब उससे रहा नहीं गया तो उसने श्रुति से उसके निजी ई-मेल पर सीधा संपर्क किया और वहीं से उन दोंनों की साहित्यिक, दार्शनिक और जीवन संबंधी चर्चा का कभी ना थमने वाला सिलसिला चल निकला।

आदित्य की सुलझी सोच, भावनात्मक और दार्शनिक रुझान और शालीन व्यवहार से श्रुति जितनी प्रभावित होती, उससे कहीं अधिक आदित्य श्रुति की ओजस्वी
लेखनी के सधे हुए शब्द-प्रवाह में बह निकलता। समाज, साहित्य, संगीत; यानि जीवन के मूल्यों के बारे में दोनों की विचार-धारा इतनी प्रगाढ़ता से समान थी कि ऐसा
कोई दिन नही जाता जब वे अपने साहित्यिक विचार व अनुभव आपस में बांट कर खुशी से विभोर न होते हों। ये विविध परिचर्चाएं उन दोनों को कब बेहद करीब ले
आई, उन्हें पता ही नहीं चला। उभरती हुई समीक्षक श्रुति आप्टे की रोचक टिप्पणियाँ, तथा लेख आदित्य बक्शी केआकर्षक शब्दों का तीव्र प्रभाव, विचार-धारा की अद्भुत समानता, एक गहरी दोस्ती को परवान चढ़ाने लगे, और वो एक दूसरे के लिए अति-अमूल्य होते चले गए।
कुछ ही समय में इंटर-नेट को लांघ कर, निजी ई-मेल पर छलांगें लगता बात-चीत का आदान प्रदान फ़ोन पर भी बह निकला। गहराई तक संवेदन-शील, कांच की तरह तुरन्त चटख जाने वाले दोना ज़ुक व्यक्तित्व मानो भावों व शब्दों के दास बन चुके थे।
थोड़े ही समय में पत्र व्यवहार व फ़ोन पर रोज़ मर्राह की अध्यात्मिक व दार्शनिक विचारशीलता की गहराई, उन्हें समुद्रों दूर होने पर भी इतना समीप ले आई कि दोनों
के हृदय आत्मिक-प्रेम के अमृत से छलकने लगे। प्यार ज्यों-ज्यों गहराता गया, शब्दों द्वारा ही एक दूसरे से छेड़-छाड़, रूठना-मनाना भी चलता रहा; और जल्द ही दोनों पारदर्शी मित्रता के प्रगाढ़ रिश्ते में बंधते चले गए। एक ऐसा रिश्ता, जो शब्दों से दिल में और दिल से रूह में उतरता है।
एक दिन एक भावुक क्षण में श्रुति ने आदित्य से अपने एकाकी जीवन के वे राज़ भी बांटे जो नितांत व्यक्तिगत थे। साहित्य के प्रति उसकी गहन निष्ठा को फालतू-काम बताते हुए पति-देव उसकी उपेक्षा करते-करते, कहीं और दिल लगा बैठे थे। परिणामत: दो बच्चों का उत्तरदायित्व उस पर छोड़, वर्षों पहले किनारा कर चलते बने थे। सुकुमार और अबोध बच्चों को जीवन की कठोर धूप व सर्द एवं शुष्क झोकों से बचाने के लिए श्रुति को केवल बूढ़ी माँ के लुजलुजाते से कमज़ोर आँचल में पनाह मिली। पुराने ज़ख्मों का ज़िक्र करते हुए उसके कंठ का मार्मिक कम्पन साफ़ सुनायी दे रहा था। बातों को हल्का-फुल्का करने के इरादे से आदित्य ने विषय बदला और श्रुति से पूछने लगा कि वह सोने से पहले क्या करती है? श्रुति ने सादगी से बताया कि वो रात को डिनर के बाद कुछ देर पुराने फ़िल्मी गाने सुनती है, फ़िर मुंह पर गुलाबजल लगा कर सो जाती हैं। उसी हल्की-फुल्की बात-चीत के दौरान ही रोमांटिक भाव में बह कर आदित्य ने हँसते हुए श्रुति से कहा कि उसकी दिली-तमन्ना है कि एक
दिन वो उसका सिर गोद में रख कर अपने हाथों से उसके चेहरे पर गुलाबजल लगाए और उसे थपक कर सुलाए। यह सुन कर श्रुति बेसाख्ता हँस पड़ी और बोली
- "हाँ हाँ, क्यों नही; बड़ा नेक ख्याल है। देखो, ज़रूर देखो, सपने देखना खूब अच्छा है"
"चलो सपना ही सही, तुमने 'हाँ' कह दिया, मेर लिए इतना ही काफ़ी है" आदित्य ने चुलबुलेपन से उत्तर दिया।
एक बार, इंटर-नेट पर प्रेषित की गयी आदित्य की एक रचना में जाने-अन्जाने उसके अपने बिखरे हुए रिश्तों की कड़वाहट और अपनों के बीच अकेलेपन का दर्द बड़ी गहराई से उभर कर आया। वर्षों पहले, विवाह संबंधी धोखों के बाद हिस्से में आया एकाकी-पन, और साथ-साथ चलने वाला भारी सन्नाटा। उस पर रचना-धर्मिता की निराशाजनक बाधाएं आदि भी। इस सन्दर्भ में फ़ोन पर श्रुति के केवल एक प्रश्न ने, आदित्य को ऐसा बाध्य किया कि वो अपने अतीत को एक छोर से खींच कर स्वेटर की तरह उधेड़ता चला गया। श्रुति ने उसकी उस साफगोई की उन्मुक्त कंठ से ढेरो सराहना की।
ऐसे ही छोटे-छोटे भावनात्मक अहसास से वे एक दूसरे को समुन्द्रों पार होते हुए भी प्रेमविभोर करते रहते। इस दोस्ती की प्रगाढ़ता में विशेष बात ये थी कि इतनी घनिष्टता के बावजूद भी दोनों में से कोई भी बात-चीत के दौरान वार्तालाप को अनुचित शब्दों द्वारा अभद्र नही करता और न ही निकट-सम्बन्ध होने के हक़ पर कोई
अनुचित मांग। क्योंकि दोनों ही भावनात्मक और आत्मिक रिश्ते में विश्वास रखते थे और रूहानी खूबसूरती में सरापा डूबे रहने में ही उसकी सार्थकता मानते थे। दिल व आत्मा की परतों में पसरा ये अजब गज़ब रिश्ता, पल-पल उनके मधुर- मदिर प्यार की अमूल्य निधि बनाता चला गया । सप्ताह और माह वर्षों में परिवर्तित होते रहे, लेकिन दुर्भाग्य'वश दोनों ओर से ही कहीं किसी का आवागमन नही हो पाया। लेकिन फ़िर भी, ई-मेल तथा फ़ोन द्वारास्थापित हुआ ये रिश्ता गाढा ही होता रहा और वे इस दुर्लभ दूरी को अपने सरलभावों और आकर्षक शब्दों की डोरी द्वारा निकट से निकटतम रखे हुए अजीब सेसुख सपनों में विचरते रहे।
एक बार अमरीका की 'प्रवासी हिन्दू सम्मिति' द्वारा आयोजित विश्व-हिंदी सम्मलेन में श्रुति को न्यू-योंर्क आने का निमन्त्रण प्राप्त हुआ। श्रुति एवं आदित्य का मन खुशी पागल हो उठा कि इतने वर्षों की लंबी प्रतीक्षा के बाद, अब जल्दी ही दोनो की भेंट संभव हो सकेगी। हृदय में स्नेह के समुंदर समेटे श्रुति ने लन्दन से न्यू-योंर्क के लिए प्रस्थान किया। इधर सीने में प्रेम के तूफ़ान थामे आदित्य उसे एयरपोर्ट लेने पहुंचा। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही रह गए। वह सच्चाई उन्हें किसी स्वप्न से कम नही लग रही थी। आदित्य ने उसे अपने घर ठहरने जाने का निमन्त्रण भी दिया, किन्तु श्रुति नेहोटल की सुविधा को ही अधिक मान्यता दी ताकि उसके साथ आए अन्य साहित्यकारों को कुछ बेढब सोचने का अवसर ना मिले। बात ठीक जान कर आदित्य ने भी अधिक दबाव नही डाला। क्यों कि हर बिंदु, हर निर्णय पर, दोनों में सोच की समानता थी , अतः दोनों एक दूसरे की बात, का स्वागत करते थे।

न्यू-योंर्क में सप्ताह भर हर दिन आदित्य ने श्रुति के साथ बिताया तथा उसका खूब मनोरंजन किया। दोनों ने जी भर कर लम्बी-लम्बी बातों की। मस्ती की, लहर में
शहर का कोना-कोना अच्छी तरह खंगाल डाला। अच्छे-अच्छे रैस्टोरेंट में खाना, ब्रॉड-वे शो, बाँहों में बाहें डाले खूब खेलते-मचलते रहना किन्तु ये सब, आचरण को ध्यान में रखते हुए, शालीनता का दामन थामे हुए। घनिष्ता के कारण, कभी कमज़ोर क्षणों में भावुकता के अतिरेक में संतुलन खोने भी लगते, लेकिन निश्छल, उजली दोस्ती के प्रति सघन सम्मान, भावों के उमड़ते तूफानों को दृढ़ता-शिष्टता से थामे रखता। दोनों ही इस बात के प्रति सतर्क रहतेकि कहीं कोई बढ़ता हुआ अनावश्यक क़दम उनकी अनमोल दोस्ती को निगल न जाए।
हर शाम घूमने-विचरने और हिंदी-समारोह से निपटने के पश्चात खाने से निवृत्त हो कर आदित्य श्रुति को होटल के गेट पर छोड़ देता, और कुछ अन्य बात-चीत के बाद श्रुति कहती ... "मैं बहुत थक गयी हूँ.., बहुत नींद आ रही है"
...और आदित्य उसके माथे को चूम होटल के बाहर से ही गुड-नाईट कह कर घर चला आता। एक सप्ताह कब आया, कब गया; पता ही नहीं चला। श्रुति की वापसी पर जुदाई की पीड़ा ने दोनों को बहुत विचलित तो कर दिया, किन्तु दोनों ही उज्ज्वल- प्रांजल रिश्ते पर कुर्बानी देने को कटिबद्ध थे। और प्रेम से सराबोर, संवेदनाओं से झाये अद्भुत रिश्ता, भौतिक दूरियों के बावजूद भी रूह में प्रगाढ़ता से घुला रहा।

श्रुति के लन्दन वापिस लौट जाने के कुछ ही दिनों पश्चात, उधर से ई-मेल व फ़ोन संपर्क सहसा टूट गया। दो दिन, चार दिन, एक सप्ताह और फ़िर इससे भी अधिक; श्रुति का कुछ पता नही था। इधर आदित्य दुःख से आहत और व्याकुल हो उठा। बहुत यतन कर उसने आख़िर एक दिन पता लगा ही लिया कि श्रुति अस्पताल में बीमार पड़ी है। उसका धैर्य टूट गया और उसने शीघ्र ही लन्दन ले लिए प्रस्थान किया। सारी औपचारिकता को तोड़ता हुआ वो सीधे अस्पताल जा पहुंचा। श्रुति एकाएक उसे अस्पताल में देख कर हैरान थी और गदगद भी। पास खड़े बड़ी बहन और जीजा सोच में थे कि श्रुति ने उन्हें आदित्य के बारे में कभी कुछ बताया नहीं। श्रुति को लेकर आदित्य की इतनी बेचैनी, संवेदनशीलता, अस्पताल में दिन-रात एक कर श्रुति की देख-भाल करना; अतैव दूसरी ओरश्रुति का आदित्य के इस समर्पण पर रीझना; कभी आँखे चुराना, दीदी और जीजा के लिए उनके रिश्ते की भावनात्मक गहराई को समझने के लिए काफी था।
"इतना प्यारा दोस्त, और तूने आज तक हमसे ज़िक्र तक भी नही किया। पर जाने क्यूँ, ये कुछ जाना पहचाना सा लगता है" दीदी ने श्रुति की आँखों में झांकते हुए कहा -
श्रुति कुछ न बोली बस छलछलाई आँखों से दीदी के गले लग गई।

अस्पताल से डिस्चार्ज होने के पश्चात सारी औपचारिकताएं पूरी कर, दीदी और जीजू ने श्रुति कोआदित्य के साथ उसके फ़्लैट पर छोड़ दिया तथा अपने घर चले गए। अंदर आकरआदित्य ने श्रुति को कंधे से पकड़ सोफे पर बैठा दिया और उसके उलझन भरे चहरे को पढ़ने लगा। "ये डिप्रेशन का रोग तुम्हें ...?" आदित्य ने सरल भाव से पूछा।
"सब से बड़ा कारण तो तुम ही हो""मैं ...?"
कहते-कहते कमजोर व भावानात्मक रूप से बिखरी हुई सी, श्रुति एकाएक सोफे से उठी और आदित्य से लिपट गई। आदित्य उसके इस प्रकार सहमें बच्चे की तरह लिपट जाने से भावुक हो उठा। देर तक दोनों वैसे ही खड़े रहे नि:शब्द। श्रुति उसकी बांहों के दायरे में घिरी ऐसा महसूस कर रही थी किमानो दुनियाँ-जहान की खुशियाँ उसमें सिमट आई हों। वो पल दोंनोके लिए एक चिरंतन अलौकिक सुख का पल था।
"तो मैं चलूँ...? होटल पहुँच कर सामान भी पैक करना होगा। बस आज की ही तो मुलाक़ात शेष है, कल शाम को वापिसी की फ्लाईट है"
"रुक नही सकते क्या..., 'झब्बू' कहीं के...?"
'झब्बू' शब्द सुनते ही आदित्य ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। मानो उसके पाँव फर्श पर जम से गए हों। स्कूल के सब दोस्त उसे इसी नाम से पुकारते थे। श्रुति ने उसके सीने में मुंह छुपा लिया। कुछ देर फ़िर खामोशी रही। "तो तुम जानती थी कि ये मैं ही हूँ; 'आरती'?"
"हाँ.., न्यू-योंर्क में एयरपोर्ट पर तुम्हें देखते ही पहचान गयी थी"
"सच पूछो तो मैने भी तुम्हें..."
"तो फ़िर बताया क्यूँ नही...?
"मैं डर गया था; कहीं पच्चीस साल पहले की बात याद दिला कर तुम्हें खो ना बैठूं"
"दरअसल मैं भी डर गयी थी, कि कहीं तुम फ़िर से ना गुम जाओ"
"क्या तुम अब भी मुझे चोर समझती हो?"
समय की पर्त में दबे किताब के पन्नों पर मानो फ़िर से शब्द उभरने लगे, और आदित्य श्रुति यानि आरती को सीने से लगाये पच्चीस वर्ष पहले के अतीत में विचारने लगा।
"तुम्हारी माँ ने मुझे मंदिर की दान-पेटी से रूपए चुराते देख लिया था। वो क्षण कुछ ऐसा बन गया कि मैं रूपए पेटी में वापिस नही डाल सका। मैने पहले ऐसा कभी नही किया था; और ना ही बाद में। बस उस दिन..."
"क्यों कि उस दिन मेरे जन्म दिन पर तुम्हें एक उपहार खरीदना था; मुझे पता है। पर तुमने उपहार ख़ुद ना देकर अपनी अपने दोस्त कार्तिक के हाथ क्यों भेज
दिया..?"
"मैं डर गया था; कहीं तुम्हारी माँ ने तुम्हें वो सब बता दिया होगा तो तुम.."
"तुम्हारी चोरी वाली बात तो माँ ने मुझे बरसों तक नही बतायी। लेकिन तुमने कार्तिक के हाथ वो उपहार क्या भेजा, उसे मेरे जीवन में ग्रहण बना कर ही भेज दिया"
"क्या...? कार्तिक ने तुमसे...?"
"हाँ.., उसने माँ पर जाने कैसा जादू चलाया कि मुझे उसके साथ..। तुम्हारेअचानक गुम हो जाने से माँ-बाबा का हौसला और बढ़ गया। शादी के बाद कार्तिक ने मेरा नाम बदल दिया। उसको 'आरती' नाम पसन्द नही था। शायद 'आरती' के साथ 'आदित्य' यादआना पसन्द नही था। साल भर में ही कार्तिक मुझे लन्दन ले आया"

श्रुति के लन्दन में बस जाने के बाद जो कुछ हुआ उसने सब विस्तार से बताया। ये भी कि कार्तिकसे अलग होने के कुछ साल बाद वो आदित्य को ढूँढने देहली गयी थी, किन्तु निराश होकर लौट आई।
श्रुति को थका हुआ देख करआदित्य ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया फ़िर कुर्सी घसीट कर पास बैठगया और बातों का सिलसिला जारी रहा। आदित्य ने बताया कि
किस परिस्थिती में अमेरिका में बसी एक लड़की से उसका विवाह हुआ था। अमरीका आने के साल भर बाद ही उसे पता चल गया कि लड़की ने पारिवारिक दबाव में आकर उससे शादी की थी, अन्यथा उसकी तो पुरुषों में कोई रुची ही नही थी। लम्बे-लम्बे अवकाश में वो लड़की अपनी गर्ल-फ्रेंड्स के साथ बाहर समय व्यतीत करती थी। उन दोनों में कभी कोई शारीरिक सम्बन्ध भी स्थापित नही हुआ था।
रात के आठ बज चुके थे। आदित्य ने श्रुति से पूछ कर किचन का सामान ढूंडा और प्यार से उसके लिए खिचडी बनायी। ख़ाने से निवृत्त हो कर दोनों रात लगभग दस बजे से ग्यारह बजे तक अपनी पसन्द के कुछ पुराने गीत सुनते रहे। धीरे-धीरे श्रुति की पलकें बोझिल होने लगी।
"मुझे नींद आ रही है, सामने के दराज़ में गुलाब जल की शीशी रखी है, क्या तुम .."
"कब से ये मेरा सपना था कि अपने हाथों से ..."
"मैने कब माना किया था; न्यू-योंर्क में हर शाम तुमको जाने से पहले मैंने कहा 'मुझे नींद आ रही है,' और तुम ..."
आदित्य के चेहरे पर एक मंद सी मुस्कान फैल गयी । वो दराज़ से गुलाब-जल की शीशी निकाल लाया। बिस्तर पर आधी सी लेटी श्रुति ने अपना सिर उसकी गोद में रख दिया। देर तक एक अलौकिक प्रेम में सिक्त वातावरण बना रहा। मस्तिष्क में फैली चिर-नि:स्तब्धता से अठखेली करते ; पुराने फिल्मी गीत गूंजते रहे और
श्रुति अदित की गोद में सिर रख कर लेटी रही। फ़िर नजाने कब दोनों की आँख लग गयी।
सुबह की महकती ताज़गी में आदित्य अंगड़ाई लेता हुआ उठा तो देखा चाय की तैयारी किये टेबल पर श्रुति उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। सिराहने की टेबल पर रैप किया हुआ एक उपहार रखा देखा। उसे पहचानने में देर नही लगी।
"ये तुमने आज तक खोला ही नही..?" आदित्य ने विस्मय हो कर पूछा
"नही, आज तक सम्हाल कर रखा है; तुम्हारे सामने खोलना चाहती थी। उठाओ और अपने हाथों से मुझे दो" श्रुति ने मुस्कुराते हुए आज्ञा भरे स्वर में कहा।
रोबिन्द्र नाथ की 'गीतांजली' को देखते ही श्रुति ने होठों से चूम लिया और तुरन्त ही खोल कर पढ़ने लगी। .... और फ़िर देर तक चाय की चुस्कियों के साथ कवीन्द्र के एक प्रचलित गीत 'मालोती-लता' पर चर्चा होती रही।

रविवार, 7 अगस्त 2011

संस्मरण: इन्द्रा प्रताप शर्मा

रिटायर्ड होने के बाद मैंने दमोह के ओजस्विनी संस्थान में प्रिंसिपल का पद सम्हाला तो घर की समस्या सामने आई| सागर स्थित घर को मैं छोड़ना नहीं चाहती थी इसलिये मैंने प्रतिदिन ट्रेन से आने जाने की सोची| ट्रेन के समय कुछ ऐसे थे जो मुझे सूट कर गए| रेलवे स्टेशन घर से एक किलोमीटर दूर था| ८:२० ट्रेन का समय ; ८ बजे घर से निकलती ट्रेन पकड़ती १०बजे दमोह पहुँच जाती फिर ५ : २० की ट्रेन पकड़ती और ७:३० तक घर पहुँच जाती|
इस प्रतिदिन की यात्रा ने मेरी झोली में अनुभवों का खजाना भर दिया| उनमें से किसी ने दिल दुखाया तो किसी ने मानवीय उद्दात्त भावों से भर दिया तो कभी सोचने के लिए मजबूर कर दिया|
आज जो घटना मैं आपको सुनाने जा रही हूँ वह एक ऐसी वृद्ध महिला की है जिसके आगे पीछे कोई नहीं था| मैं उसे अकसर एक टोकरी लिए देखती जिसमें कुछ धनिए की गड्डियाँ रखी होतीं| उसकी दुबली पतली काया पर बदरंग गहरी नीली धोती और हाथ में मटमैली सी टोकरी और उसमें सजी हरी धनिए की कुछ पत्तियाँ; मुझे ऐसा लगता मानो मानव जनसमूह में एक छोटा सा द्वीप अपने नवजात पौधों के साथ इधर उधर तैर रहा हो| मन में कौतुहल होता आखिर यह क्या है
एक दिन वह मेरे ही कम्पार्टमेंट में चढ़ी और मेरे पास आकार बैठ गई| पैसेंजर ट्रेन में भीड़ कुछ अधिक ही होती है फिर भी उसे नज़दीक बुलाकर उससे बातें शुरू कीं|| पहले कुछ इधर उधर की फिर उससे पूछ ही लिया कि तुम रोज़ टोकरी में धनिया ले कर कहाँ जाती हो और क्यों जाती हो? उसने कहा,” मैं यह धनिया सागर से खरीद कर दमोह ले जाती हूँ| बिक जाता है तो शाम की ट्रेन से वापिस आ जाती हूँ| इस ट्रेन में मुझे कोई पकड़ता भी नहीं है|”
मैंने उससे कहा, “इतना सा धनिया तो तुम सागर में भी बेच सकती हो, इतनी दूर दूसरे शहर में क्यों आती हो और बेवजह कष्ट क्यों उठाती हो; अगर बेचना ही है तो कुछ और अधिक सब्जियाँ लाया करो जिससे तुम्हे कुछ ओर अधिक मुनाफ़ा हो|” उसने कुछ क्षण मेरी ओर ध्यान से देखा फिर बोली, “मेरी सामान खरीदने की लग्गत ( सामान खरीदने के लिए धन ) इतनी ही है| इसको बेच कर मुझे एक समय की रोटी मिल जाती है जो मैं दमोह में दोपहर को खा लेती हूँ और इतने पैसे भी बच जाते हैं जिनसे मैं अगले दिन के लिए धनिया भी खरीद लेती हूँ| मेरा रोज़ का यही क्रम है| और फिर रुक कर कुछ सोचते हुए उदास मन से बोली बाई दिन भी तो काटना होता है इस तरह आने जाने से मेरा दिन भी कट जाता है| ट्रेन में अकेलापन नहीं लगता |मुक्ते लोगों की मुक्ति बातें (बहुत से लोगों की बहुत सी बातें)| दिल बहल जाता है; लौटकर आती हूँ तो स्टेशन पर पानी पीती हूँ,कभी-कभी कुछ खाने को भी मिल जाता है |भीख माँगने वाले बच्चों को कभी – कभी एक दो रुपए दे देती हूँ तो वह भी मुझे कभी –कभी खाने को कुछ दे देते हैं | फिर कुछ देर चुप रहने के बाद बोली बाई न कोई अपना है न कोई अपना घर |
उसके इस तरह अभिमान से जीने के तरीके को देख कर मुझे एक ओर अच्छा भी लगा तो दूसरी ओर मैनें सोचा ---ऐसा कब तक | क्या कोई दिन ऐसा आएगा जब मुझे अखबार के किसी कोने में एक खबर छपी दिखाई देगी कि रात की ख़ामोशी में स्टेशन पर एक बूढ़ी औरत ने दम तोड़ दिया या फिर उस खबर पर मेरी कभी निगाह ही नहीं पड़ेगी|

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009

समीक्षा: शमोएल अहमद का उपन्यास 'नदी'

नारी मन की विविध परतों को कुशलता से खोलता है - दीप्ति गुप्ता


हाल ही में मैंने शमोएल अहमद का उपन्यास नदी पढ़ा जिसने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। इस उपन्यास में लेखक की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि उन्होंने नारी मन की विविध परतों को जिस कुशलता से खोला है और उनमें समाए कोमलतम भावों को जिस बरीकी से अंकित किया है, वह नारी मन के भावों और नारी मनोविज्ञान पे उनकी गहरी पकड़ का परिचायक है। उन्होंने उपन्यास नायिका के दिलो – दिमाग़ में अलग –अलग परिस्थितियों में उभरते प्यार, घृणा, सुख, दुख, उत्साह, निराशा, कौतुक, आश्चर्य, विषाद, अवसाद और अकेलेपन को बड़ी ही सहजता और स्वभाविक ढंग से चित्रित किया। नारी मन को जिस बेबाकी से उन्होंने उकेरा है वह नि:सन्देह अतिसराहनीय है। सबसे बड़ी बात यह कि शमोएल अहमद ने समूचे उपन्यास में कहीं भी नायिका को पति के साथ ग़लत समझौते के लिए विवश नहीं किया है। जहाँ नायक रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में नियमों से हठधर्मिता की हद तक बँधा एक भावनाशून्य इंसान है, वहीं दूसरी ओर नायिका जीवन को सहजता से, किसी भी तरह की शर्त और नियमों के बंधन से मुक्त होकर जीने वाली भावुक और संवेदनशील नारी है। वह सृष्टि के कण-तृण से जुड़ाव महसूस करती है। प्रकृति के सौन्दर्य पे मुग्ध होकर, उससे एकात्म हो उठती है। सुहानी भोर, रुपहली चाँदनी,तारों भरी रुमानी रात उसे जब-तब लुभाती है। सृष्टि के उन अलौकिक क्षणों को वह भरपूर जीना चाहती है, मानो सांसों में उतार लेना चाहती है और ऐसे ख़ूबसूरत रूमानी पलों के एहसास को वह नायक के साथ जीकर अपने दिल में संजो लेने को आतुर रहती है, लेकिन संवेदनहीन नायक ऐसे पलों के अनूठेपन को महसूस न कर, हमेशा नायिका के साथ रूखेपन और कठोरता से पेश आता है। एक बार, दो बार, और बार–बार उसकी यह शुष्कता शनै: - शनै : कुरूपता में बदलती जाती है। नायिका नियमों, बन्धनों से परे होकर भी बेतरतीब और उलझी हुई नहीं है। सुलझी सोच से भरी है। पति द्वारा छोटी – छोटी बात पे उपेक्षित और अपमानित ज़रूर महसूस करती है, फिर भी पति के रंग में रंगना चाहती है, समझौता करने को तैयार रहती है, पर पति की तर्कहीन हठधर्मिता के कारण उसकी इस रिश्ते के प्रति बची खुची स्निग्धता भी जैसे सूखने लगती है। वह उमड़ती नदी की मानिन्द जीवन्त है, अठखेलियों से भरी है, प्रेम की तरंगों और लहरों से भरी है और अपने प्यार भरे प्रवाह की अंतिम मंज़िल समन्दर के साथ एक हो जाना मानती है। हांलाकि नायक का पौरुष से भरपूर व्यक्तित्व उसे रिझाता है और यह पौरुष ही उसके नज़दीक आने का कारण भी बनता है। लेकिन मन के स्तर पर लगातार नायक की यही परुषता दोंनो के बीच अलगाव का कारण बनती है। वह जीवनसाथी बनकर, हर पल, हर क्षण कठोरता से ही पेश आता है – यहाँ तक कि प्यार के भावनात्मक, नाज़ुक पलों में भी वह निहायत रूखा और यान्त्रिक बना रहता है। उसके व्यक्तित्व मे कभी भी कोमलता, भावनात्मक गरमाहट उभरकर ही नहीं आती। हर समय वह हठधर्मी की तरह अपने नियम और हठ पे अड़ा रहता है। जीवन की सुकोमल परतों से अछूता, निहायत ही पथरीला सा व्यक्ति है वह। न व्यक्तित्व में, न सोच में, न दिनचर्या में, कहीं भी लचीलापन नहीं.....पत्नी का दिल रखने के लिए भी वह न बातें करता है, न कॉफ़ी पीने में साथ देता है। जीवन की ख़ूबसूरतियों से महरूम, एक सपाट सा इंसान है जिसकी दिनचर्या नियमों से शुरू होती है और नियमों पे ख़त्म। उसमें किसी की – यहाँ तक कि अपनी नई नवेली दुल्हन की दख़लअंदाज़ी भी उसे पसन्द नहीं। उसके एकरस नियम - प्यार, अपनेपन, जीवन के ख़ूबसूरत लम्हों के ऊपर हैं। ऐसा जकड़ा सा, बंधा - बंधा इंसान न ख़ुद जीता है और न दूसरे को जीने देता है। उसके जीवन मे सपाट ज़न्दगी से उपजी जो कठोरता और रूखापन है, वह पूरी तरह उसके व्यक्तित्व में छाया हुआ है। वह तमतमाए सूरज की भाँति सदा पत्नी को झुलसाता रहता है, कभी भी गुनगुनी धूप बनकर, उसे सुखद एहसास से नहीं भरता। समर्पण के मखमली क्षणों में उसका यंत्रवत व्यवहार पत्नी को इस कदर कचोटता है कि वह उसे एक ‘’उत्पीड़क’’ नज़र आता है। जैसे वह खाना खाने के बाद, जी भर कर कई गिलास पानी पीता है, वैसे ही वह कामक्षुधा तृप्त करके, करवट लेकर जी भर के सोता है – उसकी बला से पास लेटी पत्नी, कुछ पलों के लिए उसके प्यार भरे स्पर्श को तरसे या उसकी बाहों के घेरे में सुकून से सोना चाहे। नायक स्वार्थी होने की हद तक भावनाहीन, सिर्फ़ अपने लिए जीने वाला प्राणी है, जबकि नायिका ठीक इसके विपरीत जीवन को पल-पल जीना चाहती है. सृष्टि की हर छोटी से छोटी चीज़ उसे खींचती है, लुभाती है – फूल, लताएँ, चाँद, तारे, नदी, नदी के पाट, शफ़्फ़ाक चाँदनी से भरपूर रेशमी रात – वह सबमें दिव्य सौन्दर्य, संगीत, प्यार की तरंगे- न जाने क्या – क्या ढूँढती है, अनुभव करती है, पति को इन ख़ूबसूरतियों की ओर खींचना चाहती है। पर पति की ओर से नरमाहट, किसी भी तरह की गरमाहट की कोई भी किरण न पाकर वह टूट –टूट जाती है। फिर भी नारी मन की सहज प्रवृत्ति उसे बार –बार पति से तालमेल बैठाने के लिए प्रेरित करती है कि कुछ वह झुके और कुछ पति झुके तो बीच का एक रास्ता ऐसा निकल आए कि दोंनो उस पर सम्भाव से जीवन भर साथ साथ चल सके। लेकिन पति तो रोबोट की तरह अपने में फ़ीड किए प्रोग्रामों से इस क़दर जुड़ा है कि उसके पास समझौते की कोई गुंजाइश ही नहीं, तो आहत नायिका का पिता के घर लौटना जैसे उसकी नियति बन जाता है। वह पत्नी है तो क्या हुआ, उसका अपना एक व्यक्तित्व है, अपनी एक पहचान है, उस पर वह, मननशील और चिन्तनशील स्वभाव की है, उसकी भी पसन्द –नापसन्द है। इतना होने पर भी जीवन साथी की ख़ातिर कई बिन्दुओं पर समर्पित होने को तैयार रहती है। पर पति को तो कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता, वह उसके साथ रहे या न रहे,उसे क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा लगता है, वह कब ख़ुश होती है, चहकती है, कब फफक पड़ती है ?? यह मानसिक उत्पीड़न, पति का भावनात्मक ठन्डापन उसकी भावनाओं को कुचल देता है. पति द्वारा पहले वह बैडरूम से दूसरे बैडरूम में विदा कर दी जाती है, फिर उस घर से पिता के घर विदा हो जाती है जो अन्तत: पति के जीवन से उसकी विदाई का संकेत है।

कोई भी जीवन साथी – चाहे वह पुरुष हो या नारी अपने भावनात्मक रूखेपन, ठन्डेपन, स्वार्थीपन और हठधर्मिता से अंजाने किस तरह जीवनसाथी को अपने से दूर कर देता है, इस पर शमोएल अहमद ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से क़लम चलाई है। बीच – बीच में प्राकृतिक चित्रण खूबसूरत बन पड़े हैं। नारी जीवन को उन्होंने बड़े क़रीब से जाना और परखा है। भाषा सहज, सरल, पारदर्शी, निखरी –निखरी,भावप्रवण और प्रवाहपूर्ण है। पाठक को अंत तक बाँधे रखने की क्षमता से भरपूर है। हर भाव, हर विचार सीधे दिलो दिमाग़ में उतरता चला जाता है।
इतने ख़ूबसूरत उपन्यास के लिए शमोएल अहमद की जितनी भी सराहना की जाए कम है। आशा है कि भविष्य में इसी तरह और भी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ने को मिलती रहेगीं तथा वे अपनी क़लम से साहित्य को सम्पन्न बनाते रहेगें।

सोमवार, 29 जून 2009

कहानी: भीतरी सन्नाटे - यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’


Yadwendra Sharma'chandra'परिचय: देश के जाने माने साहित्यकार और कथाकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ का 3 मार्च, मंगलवार की देर रात बीकानेर में निधन हो गया। वे 77 वर्ष के थे। उनके परिवार में पत्नी और तीन पुत्र हैं। साहित्य अकादमी नई दिल्ली, राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर, राजस्थानी भाषा संस्कृति एवं साहित्य अकादमी बीकानेर सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ ने एक सौ से अधिक साहित्यिक कृतियों का सृजन किया। इनमें लगभग 70 उपन्यास और 25 कहानी संग्रह शामिल हैं। उनके चर्चित उपन्यास, ‘हजार घोड़ों पर सवार’ पर दूरदर्शन ने टेली फिल्म बनाई थी। उनकी कृति पर टेली फिल्म, गुलाबड़ी और चांदा सेठानी बनाई गई। ‘चन्द्र’ ने अपनी लेखनी से समाज को नई दिशा देने के लिए जीवनपर्यन्त सादगी व ईमानदारी से सृजन धर्म का निर्वाह किया। उन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, कविता संग्रह एवं लघु नाटकों की 100 से ज्यादा पुस्तकों की रचना कर साहित्य के क्षेत्र में अपना अपूर्व योगदान दिया है जो सदैव एक मिसाल के रूप में जीवंत रहेगा। उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए यहाँ उनकी कहानी ‘भीतरी सन्नाटे’ प्रकाशित कर रहे हैं| संपर्क: - आशा लक्ष्मी, नया शहर बीकानेर - 334004
-संपादक




उसकी नौकरी मुम्बई में लग गई। एक बड़ी प्राइवेट कम्पनी में। आखिर वह सी.ए. था। अपने कस्बे ‘नोखा’ से महानगर मुम्बई आ गया।
शुरू में वह एक मध्यवर्गीय होटल ‘गुलनार’ में रहा। एक बेडरूम का हवादार कमरा। फॉम का बिस्तर था पर उसकी दूध सी सफेद चादर पर एक हलका सा दाग था जिससे वह बेचैनी का अनुभव करने लगा। उसने चादर चेंज करा ली।
पहली बार जब वह अपनी कम्पनी में आया तो उसके मालिक जी.एस. चावला ने उसका स्वागत किया। उसे अपने खास-खास कर्मचारियों से मिलाया जिसमें उसकी स्टेनो मिस ‘वन्दना’ भी थी।
आठ-दस दिनों में उसने दफ्तर के काम को पूरी तरह समझ लिया तो एक दिन वन्दना ने कहा, ‘‘सर! इफ यू डॉन्ट माइन्ड तो कुछ कहूँ।’’
रोहन ने कहा, ‘कहो।’
‘‘यह श्रीशा है न, यह विचित्र युवती है। बहुत ही बातूनी, खुले दिमाग़ की, फ्लर्ट.....’’
‘‘वन्दना! तुम्हें ऑफिस के डिसीप्लीन का पता नहीं है। श्रीशा क्या करती है, क्या खाती-पीती है, क्या पहनती है, वह किस- किस के साथ घूमती है, इसकी ऑफिस में कोई फाइल नहीं है। यह सही है कि वह अपना काम जिम्मेदारी से करती है। मैं तुम्हारा बॉस हूँ। ऊल जलूल बातें मुझें पसंद नहीं। उसने कठोर स्वर में कहा।
‘सॉरी सर!’ वन्दना सिर झुका कर चली गई।
रोहन ने एक अच्छे अफसर की तरह अपने ऑफिस का कार्य संभाल लिया।
अब वह मकान की तलाश में लग गया। वह ऐसा मकान चाहता था जहाँ अभिजात्य वर्ग के लोग रहते हों। उसके सारे पड़ोसी पढ़े-लिखे हों, अंग्रेजीदा हों तो उत्तम! फ्लैट में पश्चिम की ओर बरामदा हो जहाँ पछुआ हवा बेरोक आती रहे। उस मकान के आस-पास झुग्गी-झोंपड़ियाँ और चालें न हों। उनकी मौजूदगी उसे कीड़े-मकोड़े की तरह रहने वाले लोगों के बारे में सोचने के लिए विवश करेंगी और वह निरर्थक तनाव से घिर जाएगा, वह जरा एकांतप्रिय था। वह यह वाक्य अपने पर आरोपित करता रहता था कि वह भीड़ में अपने को अकेला आदमी समझता है।
वह बचपन से ही मितभाषी था। फालतू बोलने वाले छात्र- छात्राओं से वह बचा करता था। वह उनसे लगभग दूर ही रहता था, जो अपने को काफी आधुनिक कहते थे और सिगरेट-शराब पीते थे, उनसे भी बचता रहता था। इसलिए वह चाहता था, एक अपने मनोनुकूल वातावरण वाला मकान। शांत और खुला।
वह नौकरी के बाद मकान ढूँढ़ता रहता था। जब वह थक जाता था तो मुम्बई की चौपाटी पर जाकर बैठ जाता था। लहरें गिनता रहता था। कई बार अपनी इच्छा के विरुद्ध वह चर्च गेट के स्टेशन के मुख्य द्वार पर खड़ा हो जाता था और आदमियों की भीड़ का रेला देखता रहता था। वह देखता-रंग-बिरंगी पोशाकें। भागमभाग।
उसे जल्दी ही इस बात का पता चल गया कि वह अपने मन के अनुकूल फ्लैट ले नहीं सकता। उसका मालिकाना हक और पगड़ी देना उसके वश का फिलहाल तो नहीं है। परिवार की जिम्मेदारियाँ तो ‘ताड़का’ राक्षसी के मुख की तरह फैली थीं। तीन कुँवारी जवान बहिनें। पेंशन पर दाल-रोती खाने वाले माँ-बाप। .....वह उद्विग्न हो गया। उसके आगे मीलों अनंत मरुस्थल के टीबें फैल गए।
एक दिन उसने अपने चीफ एकाउन्टेंट प्यारेलाल को अपनी समस्या बताई।
प्यारेलाल ने कहा, ‘‘आप या तो अपने सपनों को भंग कर दीजिए या फिर जीवन की कटुता समझ लीजिए। यह मुम्बई है, यहाँ सोना जितना चाहो कुछ ही मिनटों में खरीद सकते हैं पर सोने की जगह आसानी से नहीं मिल सकती।.....फिर भी आप मिस श्रीशा से बात कीजिए। वह काफी जानकारियाँ रखती हैं।’’
‘‘श्रीशा जो आपके पास.....।’’
‘‘हाँ-हाँ, वही श्रीशा.....।’’
‘‘उसके बारे में.....।’’
‘‘नहीं मिस्टर रोहन, चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष, सबके जीने का अपना-अपना तरीका है। व्यक्तिगत सुख और आनन्द भी सबके अलग होते हैं। रुचियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं और परिभाषाएँ भी। मुझे कई बार लगता है कि यह श्रीशा जो है, वह नहीं है। इसने कृत्रिमता का एक लबादा पहन रखा है। उसकी एक क्वालिटी और है, वह सबकी मददगार भी है।’’
‘‘आप उसे मेरे पास भेजिए।’’
थोड़ी देर में श्रीशा उसके कैबिन में थी। आते ही विनम्रता से बोली, ‘गुड नून सर!’’
‘‘बैठिए.....आप मेरी प्रॉब्लम हल करने में मदद कर सकती हैं, मलकानी साहब कह रहे थे।’’
‘‘मुझे खुशी होगी यदि मैं आपके काम आ सकूँ तो।’’
‘‘श्रीशा जी! आप तो इसी शहर की उपज हैं। सारी एजुकेशन भी आपने यहीं पूरी की है। मैं सच कहता हूँ कि मैं आपको जरा भी कष्ट देना नहीं चाहता पर कई बार मनुष्य न चाहते हुए भी दूसरों को कष्ट देता है, मैं आपको......।’’
वह सहज मुस्कान अधरों पर लाते हुए बोली, ‘‘किसी भूमिका की जरूरत नहीं है। साफ-साफ बताइए कि आप मुझे क्या कष्ट देना चाहते हैं।’’
‘‘मैं कई रोज से फ्लैट के लिए परेशान हूँ।.....कभी मेरी जेब एलाऊ नहीं करती है और कभी......।’’
उसने संक्षिप्त रूप में बताया कि वह किस एरिया में और कैसा फ्लैट चाहता है।
‘और.....क्या खर्च कर सकते हैं?’
‘यही दो हज़ार....ज़्यादा से ज़्यादा तीन....इसके आगे मेरी क्षमता नहीं, मेरा भरा-पूरा परिवार है। उसकी भी परवरिश करनी है।’ रोहन ने कहा।
उसने ललाट में बल डाल कर अपना दायाँ कान खुजला कर कहा, ‘माफी चाहती हूँ।.....फिर आप किसी खोली में कमरा ले लीजिए। अपनी इच्छा का फ्लैट लेना है तो पाँच-सात हज़ार रुपए खर्च कीजिए या फिर पाँच-सात लाख पगड़ी दीजिए।’
‘यह संभव नहीं।’ उसने नई बात बताई, ‘दरअसल कम्पनी ने साफ-साफ कह दिया था कि तीन साल तक वह केवल तनख्वाह ही देगी। ऐसी स्थिति में.....।’
वह बीच में ही बोली, ‘मुझे आपकी बात बनती नज़र नहीं आती है। फिर भी मैं बाइ हर्ट, कोशिश करूँगी कि आपकी पाॅकेट के अनुसार काम हो जाए। फिर आपका लक।’
श्रीशा चली गई।
रोहन ने सोचा कि यह काफी आकर्षक है। गोरा रंग, कंजी आँखें, तीखे नाक-नक्श, फाँक की तरह अधर और निडर भी।
रोहन और उसके बीच संवाद कम ही थे। लेकिन मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। सहिष्णु होना ही पड़ा। श्रीशा से रोहन को सदैव पूछना ही पड़ता था।
लगभग तीन दिनों के प्रयास के बाद श्रीशा ने रोहन को बताया, ‘मैंने सभी इलाकों का सर्वेक्षण कर लिया है। आप जिस एरिया में फ्लैट चाहते हैं रोहन बाबू, इतना किराया तो आटे में नमक जैसा है। पूरी रसोई नहीं मिल सकती। कहने का मतलब है, कारवालों की एरिया में कम से कम पाँच हज़ार रुपए तो किराया और पाँच लाख पगड़ी, वह भी वन बेड रूम की। उसमें पछुवा हवा नहीं आ सकती, आ सकती है तो केवल पंखे की हवा। हाँ, मेनन साहब की चाल में कमरा पाँच सौ रुपयों में मिल सकता है, किराए पर। पगड़ी एक लाख अलग से।’
‘नहीं मैडम, यह संभव नहीं है। आपको पता नहीं, मेरे कंधों पर दायित्वों का भयंकर बोझ है। मुझे मेरे माँ-बाप ने बड़े कष्टों में पढ़ाया है।’
इसके बाद रोहन भी प्रयास करता रहा और श्रीशा भी।
श्रीशा ने एक दिन मुलायम स्वर में कहा, ‘सर! आप मेरे बॉस हैं। मैं आपकी मानसिक स्थिति समझती हूँ। महानगरों की यह समस्या खत्म होगी ही नहीं। हज़ार मकान बनते हैं साथ ही पाँच- दस हज़ार नए लोग आ जाते हैं। सारा खेल खत्म हो जाता है। समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है। हाँ, यदि आप पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचें तो मैं आपके सामने अच्छा और सस्ता प्रस्ताव रख सकती हूँ। आप अपनी अनुकूलताओं की कटौती करें।’
‘आप पहेलियाँ मत बुझाइए। साफ-साफ कहिए। बोलती आप कुछ ज़्यादा ही हैं।’
‘यह सही है। बोलती ज़्यादा हूँ। मजाकिया हूँ सर! हर आदमी का अपना अलग स्वभाव होता है। अलग आनन्द होता है। मैं समझती हूँ कि हमारे भीतर कई इंसान हैं जो पल-पल सक्रिय होते रहते हैं।’
‘अपनी रहस्यपूर्ण बातें बंद करिए प्लीज। शॉर्ट में कहिए।’
‘हमारे फ्लैट में तीन कमरे हैं। पूरा सेकेंड फ्लोर हमारा है। आजकल हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। दस तारीख तक जेबें व बटुवे नंगे हो जाते हैं। मम्मी चाहती हैं कि हम कोई शरीफ और समय पर पैसा देने वाला पेईंग गेस्ट रख लें। जो कमरा हम आपको देंगे, उसमें अटेच्ड बाथरूम भी है। पूरब में खिड़की है, पछुवा हवा चलती है तो अवश्य कमरे में आती है। चूँकि मैं और मेरी मम्मी घर में दो ही जनें हैं, इसलिए घनघोर खामोशी भी रहती है। किराया दो हज़ार से कम नहीं होगा। यदि आप ब्रेकफास्ट, लंच व डिनर लेंगे तो एक हज़ार रुपए और, यानि तीन हज़ार में परिवार की तमाम सुविधाएँ। एकदम रीजनेबल रेट है यह। एक और कारण है। आजकल महानगरों का जीवन सुरक्षित नहीं है। अकेली औरतें आतंक से घिरी रहती हैं।’
‘मैं सोच कर बताऊँगा।’ उसने छोटा सा उत्तर दिया।
‘लेकिन जल्दी, तीन दिनों के भीतर! समझे। कई ग्राहक आ रहे हैं पर हमें परिचित व शरीफ पेईंग गेस्ट चाहिए।’ श्रीशा ने आँखों में स्पन्दन वाले भावों को चमकाया।
रोहन को अपने भीतर कुछ महसूस होता सा लगा। श्रीशा सिर झुका कर चली गई।
तीसरे दिन छुट्टी थी। गणेशोत्सव की। मुम्बई में अकल्पनीय हलचल। भाँति-भाँति की मूर्तियाँ! आकर्षक व भावभीनी। मूर्तिकारों की सारी सोच, कल्पना और श्रम गणेश जी को विभिन्न रूपों में साकार करने की योजनाएँ। योजनाएँ क्रियान्वित होती हैं पर जब वे श्रद्धामयी मूर्तियाँ पानी में समर्पित कर दी जाती हैं तो श्रीशा का मन तड़प उठता है।
उसने इसी कारण गणेशोत्सव में शामिल होना बंद सा कर दिया पर उसे नहीं पता, मिट्टी की मूर्ति अंत में मिट्टी में मिल जाती है।
सूरज के डूबने का समय था। क्षितिज लाल। स्त्री-पुरुष और बच्चे बेतहाशा समुद्र की ओर जा रहे थे। उनके चेहरों पर श्रद्धा का रंग दपदप कर रहा था।
श्रीशा अपने को प्रकृति के विभिन्न रंगों में डूबाना चाहती थी पर उसे क्यों बार-बार याद आ रहा था कि आज तीसरा दिन है। रोहन आज नहीं आएगा तो? उसकी आँखों में आशा का समुद्र सिकुड़ने लगा। उसकी आँखों में झिलमिलाते रंग मिटने लगे। आशा थी कि वे जरूर आएँगे। मकान की उन्हें बहुत जरूरत है पर साँझ का सूरज अस्त होने के करीब था।
सहसा उसने गणेश भगवान को स्मरण किया। कदाचित वह कहीं से रोहन को अपने भीतर कीड़े की तरह कुलबुलाते हुए महसूस कर रही थी।
सहसा घंटी बजी। वह लपक कर दरवाजे की ओर भागी। बिना सोचे और बिना जाने उसने तपाक से दरवाजा खोल दिया।
एक गोरा-गोरा मुरझाया चेहरा खड़ा था।
‘आइए सर।’
रोहन भीतर आया। घर पुराना पर साफ-सुथरा। श्रीशा उसे उसी कमरे में ले गई, जिसे उसे किराए पर देना था। कमरे में वह सब कुछ था जिनकी एक व्यक्ति को जरूरत होती है। पंखा, पर्दे, डबल-बेड, बाथरूम, अलमारी, सोफा और साइड स्टूलें।
इन सबको देख कर रोहन की आँखों में एक साथ कई प्रश्न चमके।
‘बैठिए सर! मैं पानी लेकर आती हूँ।’
वह कमरे से बाहर चली गई। वह नादान बालक की तरह कमरे को देखता रहा।
‘सर! पानी!’
उसने पानी पिया। गटागट।
‘चाय पीएँगे या कॉफी?’
‘कॉफी।’
चली गई श्रीशा।
वह सोचने लगा कि क्या यही वह श्रीशा है जो लोगों की नज़रों में काफी फ्लर्ट है। कुछ लोग तो इसे चालू भी कहते हैं। व्यंग्य में दबी जबान में गंदगी उछालते हैं कि इसके शरीर के समन्दर में कई लोग डुबकी लगा चुके हैं पर रोहन को वह बड़ी शालीन लगी।
वह कॉफी ले आई थी। कप हलके नीले रंग के थे। कॉफी के साथ उनका मेल अच्छा लग रहा था। अपने लिए भी वह कॉफी लाई थी।
‘इतनी देर में आपने कमरा तो देख लिया होगा?’ श्रीशा सहज स्वर में बोली, ‘अब आप मेरी बातों पर ध्यान रखकर यस-नो कहिए सर!’ श्रीशा की आँखों में सहसा सैलाब उभरा। स्वर का बुझापन बढ़ गया। बोली, ‘दबाव की बात नहीं है। आप हम पर दया नहीं करेंगे। यदि यह रूम आपको पसंद है तो आप यहाँ रहने आ सकते हैं। हमें भी किसी अच्छे किराएदार की तलाश है। आप सभी दृष्टियों से सही हैं। और लोग कहते हैं कि एक से भले दो और दो से तीन।’
रोहन चुप हो गया। गंभीर कोमलता उसके चेहरे से चिपक गई। क्षणिक गूँगापन!
कॉफी के एक साथ दो घूँट लेकर रोहन ने कहा, ‘मैं तुमसे उम्मीद रखूँगा कि तुम मुझे सच-सच बताओगी, चाहे वह सच नीम की तरह कडुवा भले ही हो। इस कमरे को देख कर मुझे लगा कि क्या पहले उसमें कोई रहता था?’
बुत-सी स्थिरता श्रीशा में आ गई। आँखों से लगा कोई संवाद उसके आगे प्रेतात्मा सा नाच रहा है।
रोहन ने फिर पूछा, ‘सच बताओ।’ वह सहसा उसके सन्निकट हो गया। आप से तुम पर आ गया। उसकी गर्दन झुक गई। लगता था कि वह किसी अपराध बोध से घिर गई हो। फिर भी साहस करके वह बुझे स्वर में आहिस्ता-आहिस्ता बोली, ‘हाँ, इसमें मेरे पति रहते थे। माइ हसबैंड!’
‘क्या?’ रोहन की आँखें विस्फारित हो गई। जैसे सब कुछ पल भर के लिए थम गया हो।
‘हाँ रोहन बाबू! इस कमरे में मैं और मेरे पति रहते थे। इस कमरे में जो कुछ भी है, उनका ही खरीदा हुआ है।’
‘अब वे कहाँ हैं?’
‘ही इज नो मोर सर! मैं इतनी भाग्यहीन हूँ कि तुरन्त विधवा हो गई।’
‘उन्हें क्या हुआ था?’
‘कुछ नहीं, वे अपाहिज थे। एक टाँग से लँगड़े थे। कहते थे कि किशोरावस्था में एक्सीडेंट हो गया था। प्रॉपर इलाज न होने के कारण वे बैसाखी के सहारे चलते थे।’
‘फिर तुमने शादी.....।’ रोहन की आँखों में विस्मय चमका।
वह उदास मुस्कान से बोली, ‘हमने प्रेम विवाह किया था। एक बार मैं दफ्तर से आ रही थी। एक मोड़ पर एक कार वाला उन्हें टक्कर मार गया। वे अचेत हो गए। मैंने देखा उन्हें कोई उठा नहीं रहा है। मैं नहीं जानती कि वह किसकी प्रेरणा थी पर मैं उन्हें राहगीरों की सहायता से अस्पताल ले गई। सुबह तक वह स्वस्थ हो गए। रात को मैं घर लौट आई थी। उनका एक मित्र आ गया था।’
‘जब वे अचेत थे तब मैंने गौर से उन्हें देखा था। वे एकदम गोरे थे। नाक-नक्शे भी अच्छे थे। बाल घुंघराले थे। मुझे सुन्दर लगे। अपाहिज न होते तो उनका व्यक्तित्व लगभग आप जैसा ही था।’
‘सुबह मैं फिर अस्पताल गई। डॉक्टर ने उन्हें छुट्टी दे दी। वे मुझे अपने घर पहुँचाने का आग्रह करने लगे। मैं उनके घर गई। यही घर था उनका। मैंने उनके लिए चाय बनाई। उन्होंने मेरा, दवाइयों व डॉक्टरों की फीस का हिसाब-किताब किया। उन्होंने पूछा, ‘इतने रुपये आप कहाँ से लाई? मैंने उन्हें बताया कि कल मुझे तनख्वाह मिली थी।’ मैं वहाँ से आने लगी तो उन्होंने कहा- ‘मैं आपका अहसान सदैव याद रखूँगा। आप मुझसे जरूर मिलिएगा। एक परिचित के रूप में ही सही।’ तभी उनकी नौकरानी आ गई।
मैं उनके यहाँ यदाकदा जाती रहती थी। किस आकर्षण के तहत जाती रही परिभाषित नहीं कर सकती। यह वास्तव में प्रेम भावना थी या उनके अपाहिजपन के प्रति मेरी करुण भावना द्रवित हो गई थी। बस, वे मुझे अच्छे जरूर लगने लगे थे। वे बहुत भावुक व वाक्य पटु भी थे।
एक बार नरेन ने कहा था, ‘देखो श्रीशा, प्रेम शब्दातीत है। वह केवल अनुभव किया जा सकता है। उसके अर्थ और मर्म मेरी दृष्टि में अनेक हैं। वह हृदय का सत्य है।’
वस्तुतः रोहन साहब! वह प्रेम की बहुत अधिक व्याख्याएँ करता रहता था। मैं उन्हें सुन-सुन कर हतप्रभ हो जाती थी। उनके भावुकतापूर्ण संवादों और मनमोहक महत्त्वाकांक्षाओं ने मुझे सम्मोहित सा कर दिया था। मैं स्वयं बेचैन रहने लगी उनके लिए।
एक दिन मैंने उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उन्होंने बताया, ‘सुनो, मैं इस संसार में अकेला हूँ। आज मेरी सात पीढ़ी में कोई नहीं है। यह फ्लैट मेरे मरहूम चाचा ने दिया था। वे कुँवारे थे। मैं जाति का कायस्थ हूँ। मुझे जो कुछ भी मिला है, अपाहिज होने के कारण मिला है।’ .... उसने पल भर रुक फिर कहा, ‘मुझे तुमसे शादी करके बहुत खुशी होगी। मेरा यह दुर्दान्त एकांत और चुभती ऊब मिट जाएगी। तुम्हें इस पर गंभीरता से सोचना है।’
मैंने अपनी माँ को नरेन की सारी स्थिति बताई। अपनी घरेलू स्थितियों का विश्लेषण किया। एक ‘खोली’ में रहने वाले निम्न मध्यवर्गीय परिवार के लिए यह सुनहरा अवसर था। .....पर माँ अकेली हो जाएगी। मैंने तय कर लिया कि माँ को अपने पास रखूँगी।
मैंने सारी बातें नरेन को बताई। नरेन ने सहर्ष स्वीकार कर लिया कि माँ जी हमारे साथ रहें, मुझे कोई एतराज नहीं।
शुभ मुहूत्र्त देखकर हमने कोर्ट-मैरिज कर ली। ......सही, पक्की और सस्ती अदालती शादी। साक्षी थे मेरी माँ, मेरी दो सहेलियाँ, नरेन के बॉस और उसके दो मित्र। इन लोगों को ही हमनें होटल में पार्टी दी।
सुहागरात भी हमने फूलों की खुशबू में मनाई। मुझे लगा कि नरेन पूरा पक्का और तगड़ा मर्द है। टूटे लुंज पुंज पाँव पौरुष के प्रदर्शन में बाधा नहीं बनते।
चंद ही दिनों के बाद मुझे महसूस हुआ कि चाहे एरेंज मैरिज हो या लव मैरिज, लेकिन यह पत्थर की लकीर की तरह अमिट सत्य है कि पति होते ही हर मर्द हुक्मरान बन जाता है। जैसे उसके हुक्म की तामील तुरन्त हो। मैंने जाना कि मर्द की देह नब्बे प्रतिशत उसकी अपनी होती है और स्त्री की दस प्रतिशत अपनी। यही हाल उसके मन का होता है। वह शादी के पूर्व नरेन मेरा भावुक दोस्त था पर शादी के पश्चात् वह मेरा स्वामी बन गया। यदि मैं उसकी कोई बात नहीं मानती तो उसकी आकृति पर रंग-बिरंगी भाव-रेखाएँ दिखाई पड़ती थीं। वह स्थिर सा हो जाता था। उसकी आँखों में मौन-आज्ञा की किरणें चमक उठती थीं।
उसके इस व्यवहार से मैं बर्फ बनती जा रही थी। अपने को अन्तस को उत्तेजित सहसा नहीं कर पाती थी। मैं उससे उबने लगी। असहिष्णु हो गई। वाक्य-युद्ध होने लगे। मैं बिल्कुल अजनबी हो जाती थी। माँ भी एक माह के बाद आ गई थी। उसके कारण मैं जरा खुश थी। अपने को सुरक्षित समझती थी। हमारा कोई विशिष्ट नहीं, सामान्य जीवन चल रहा था। क्योंकि मैं भी कमाती थी।
कई बार कुछ घटनाएँ अनायास घट जाती हैं। वे अच्छी भी होती हैं और बुरी भी।
एक दिन वे दफ्तर से वेतन लेकर आए। बाज़ार से मेरे लिए साड़ी और मिठाई लाए। मुझे वह नई साड़ी पहनाई। कहा, ‘आज मेरा जन्मदिन है।’ रात को उन्होंने कई बार शरीर के समन्दर में गोते लगाए। वे असीम आह्लाद से घिरे थे।
सुबह मैं उठ कर काम में लग गई। वे देर से उठे। चाय पी। लैट्रिन में घुसे। घुसे तो फिर बाहर ही नहीं निकले। मैंने कई बार पुकारा। कोई उत्तर नहीं। मैंने माँ को कहा। माँ भी घबराई।.... मैंने उन्हें जोर-जोर से पुकारा। दरवाजा भड़भड़ाया।
अब मेरा धैर्य जाता रहा। मैं भाग कर निचली मंजिल के मिस्टर जोशी को बुला कर लाई। उन्होंने भी प्रयास किया। हमारी चिंता व घबराहट बढ़ती ही जा रही थी। अमंगल आशंकाएँ हमारा घेराव करने लगी थीं।
मिस्टर जोशी भाग कर एक मिस्त्री को लाए। उसने दरवाजा उखाड़ा। वे अर्धनग्न फर्श पर पड़े थे। जोशी जी ने उन्हें झिंझोड़ा, बार-बार पुकारा। दिल की धड़कनें सुनी पर निष्फल। जोशी ने मुझे दर्द भरी लुक दी और कहा-‘‘आई थिंक, ही इज नो मोर!’’
तभी कुछ लोग और आ गए थे। एक भाग कर डाक्टर को ले आया। उसने भी कह दिया कि हंसा उड़ गया। ....रोहन! सोचो, सारा खेल चंद मिनटों में खत्म हो गया कितनी अकल्पनीय घटना थी। कितना ही अपना हो पर मृत्यु के बाद उसे जितना जल्दी हो सकता है, आग के हवाले हम कर देते हैं। नरेन का दाह-संस्कार कर दिया गया। उसे मुखाग्नि मैंने दी।
मेरी सहेलियाँ और उनके मित्र ‘उठावणी’ में आए। बारहवें दिन मम्मी के दबाव पर ग्यारह ब्राह्मणों को भोजन कराया। उनके पकड़े गरीबों को बाँटे। उसकी बैसाखी समुद्र को दे दी, कभी वह लंगड़ा होगा या किसी को लंगड़ा करेगा तो उसके काम आएगी।
इसके बाद घर में धीरे-धीरे सन्नाटा पसर गया। प्रेतात्मा के घर का घुटनदार सन्नाटा। मुझे पीड़ादायक ऊब का अहसास पहली बार हुआ।
रोहन ! समय हर जख़्म को भर देता है। समय हर स्मृति को धुँधला कर देता है, समय पत्थर की लकीर को भी घिस देता है।
मैंने भी अपने को सामान्य कर लिया। जीने के लिए एक खूबसूरत व सुखद बहाना जरूरी है। भीतर के साँय-साँय करते सन्नाटों को मारने के लिए मैंने हँसी, मजाक, खुलेपन, सतहीपन से जीना शुरू कर दिया। लेकिन मेरा अन्तस पहाड़ी घाटियों की तरह सूना है। हाँ, नरेन के एक खास दोस्त ‘हाशमी’ को यह वहम हो गया था कि मैंने इस फ्लैट व लंगड़े पति से छुटकारा पाने के लिए उसकी हत्या कर दी है। उसने भाभीजान-भाभीजान कह कर मुझसे सम्पर्क भी बढ़ाया पर जब वह कुरेद-कुरेद कर सवाल पूछने लगा और कई बार उसने मेरा पीछा किया तो मैंने उसकी मनसा को भाँप लिया। मैंने उसे कह ही दिया, ‘मुझे उनके दोस्तों को सम्मान देना अच्छा लगता है पर मेरी जो जासूसी करता है, वह इंसान मेरे लिए घृणा के लायक है। हाशमी साहब! फिर कभी आप मुझसे बात नहीं करेंगे।’
अब आप ही बताइए, कई लोग निरर्थक हुशियारी करते हैं। सच तो यह है कि कोई मेरे निजी सच को नहीं जानता कि मैं कितनी दुखी और संकटों से घिरी हूँ। मैं इस देश की अधिकतर स्त्रियों की तरह जीती हूँ। मेरी आंतरिक पीड़ा को कोई नहीं समझता। लोग समझते हैं कि यह फ्लर्ट है। नहीं रोहन बाबू... मेरे भीतर कई ज्वार-भाटे हैं। दुखों, नीरसता, व्यर्थता और पलायन के कई प्रेत हैं। ये प्रेत कब मेरा गला घोंट दें मैं नहीं जानती। मैं अकेली भयभीत रहती हूँ।
रोहन इतनी देर खामोश बैठा था। बोला, ‘‘मैं यहाँ नहीं आऊँगा। न मैं तुम्हारे भीतर के सन्नाटों को तोड़ना चाहता हूँ और न बाहर की खुशियाँ मिटाना चाहता हूँ। मुझमें वह शक्ति भी नहीं है कि तुम्हारे पीड़ा के प्रेतों को भगा सकूँ। मैं शांति चाहता हूँ प्रगाढ़ शांति।’’
‘लेकिन आपको यहाँ आना ही है।’’
‘‘श्रीशा! औरत के साथ एक अकेला मर्द रहने से कई खतरें हैं। ये खतरें कई बार अनर्थ भी कर सकते हैं। मानसिक चैन को मिटा सकते हैं। गंदे विचार फैला सकते हैं। गलतफहमियों के कांटे चुभा सकते हैं।’’ उसके स्वर में तड़प थी।
‘‘रोहन बाबू! आपको यहाँ आना ही है। जरूर आना है और आपकी अपनी शर्तों पर आना है। झूठ चोर की तरह होता है, उसके पाँव कच्चे होते हैं अतः वह सच की झलक से भाग जाता है। हाँ, कई सयाने कहते हैं कि सच्चे व अच्छे आदमी के आने से वहाँ के सारे प्रेत भाग जाते हैं। मेरे अन्तस में कई प्रेत हैं। वे तो आपके आने से ही जरूर भाग जाएँगे। खतरों की बात? खतरों के बिना नये सुखों की तलाश नहीं होती।’ वह भावुक हो गई। उसकी आँखें छलक आई। रोहन उसे अपलक देखता रहा। वह थोड़ा सा मुस्कुराया।
सन्निकट स्थित मंदिर में शंख बज उठा। उसकी पवित्र और मधुर आवाज़ में प्रेरणाएँ थीं।

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

परिचय: महाश्वेता देवी -शम्भु चौधरी


Mahasweta Deviमहाश्वेता देवी एक ऐसा नाम जिसका ध्यान में आते ही उनकी कई-कई छवियां आंखों के सामने प्रकट हो जाती हैं। जिसने अपनी मेहनत व ईमानदारी के बलबूते अपने व्यक्तित्व को निखारा है। उन्होंने अपने को एक पत्रकार, लेखक, साहित्यकार और आंदोलनधर्मी के रूप में विकसित किया। महाश्वेता देवी का जन्म सोमवार 14 जनवरी १९२६ को ईस्ट बंगाल जो भारत विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान वर्तमान में (बांग्लादेश) के ढाका शहर में हुआ था।
गत 13 फरवरी '2009 को सुबह 11.30 बजे सहारा समय (कोलकाता) की वरिष्ठ पत्रकार सईदा सादिया अज़ीम , हिन्द-युग्म (दिल्ली से) श्री शैलेश भारतवासी और मैं खुद कोलकाता स्थित महाश्वेता देवी के घर उसने मिलने गये थे।
महाश्वेता जी ने अपना सारा जीवन ही मानो आदिवासियों के साथ गुजार दिया हो। जल, जंगल और जमीन की लड़ाई के संघर्ष में खर्च कर दिया हो। उन्होंने पश्चिम बंगाल की दो जनजातियों 'लोधास' और 'शबर' विशेष पर बहुत काम किया है। इन संघर्षों के दौरान पीड़ा के स्वर को महाश्वेता ने बहुत करीब से सुना और महसूस किया है।
Mahasewta Devi and Shambhu Choudharyपीड़ा के ये स्वर उनकी रचनाओं में साफ-साफ सुनाई पड़ते हैं। उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ' 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां' हैं। आपको पद्मविभूषण पुरस्कार (२००६), रैमन मैग्सेसे (1997), भारतीय ज्ञानपीठ(1996) सहित कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है। पिछले दशक में महाश्वेता देवी को कई साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। आपको मग्सेसे पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है जो एशिया महादीप में नोबेल पुरस्कार के समकक्ष माना जाता है।
फिर भी आप बोलती हैं कि आपने किसी पुरस्कार के लिये कार्य नहीं किया। बार-बार आदिवासी के प्रश्न पर विचलित होते इनको कई बार देखा गया। कहती हैं कि "हम लोग तब तक अपने आपको सभ्य नहीं कह सकतें,जब तक हम आदिवासियों के जीवन को नहीं बदल देते। आपने 'संथाल', 'लोधास', 'शबर' और मुंदास जैसे खास आदिवासी (आदिवासी जन जाति) लोगों के जीवन को बहुत गहराई से न सिर्फ अध्ययन ही किया इन पर बहुत कुछ अपनी कथाओं में समेटने का प्रयास भी किया है, आज भी आपको ऐसे समाचार विचलित कर देतें हैं जहाँ किसी आदिवास के ऊपर ज़ुल्म किया जाता है। आप सदैव से सामाजिक और राजनीतिक प्रासंगिक विषयों पर अपनी कलम से प्रहार करती रहीं हैं। आप एक जगह लिखती हैं- ‘‘एक लम्बे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी.....।’’ आपने अपना पूरा जीवन और साहित्य, आदिवासी और भारतीय जनजातीय समाज को समर्पित कर दिया है। इसलिए नौ कहानियों संग्रह में से आठ कहानियों के केन्द्र में आदिवासी जाति केन्द्रित है, जो आज भी समाज की मूख्यधारा से कटकर जी रहा है।
Mahasveta Deviलेखिका महाश्वेता देवी 14 जनवरी 2009 को 83 वें साल की हो गई, पर इनके चेहरे पर हमें कहीं कोई थकान देखने को नहीं मिला। बातें ऐसे करती हैं जैसे कोई परिवार का सदस्य ही हो हम। वर्ष 1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान उनकी लेखनी ने लोगों को दहला दिया था। आज भी किसी आंदोलन के नाम आपको आगे देखा जा सकता है। जब मैंने यह प्रश्न किया कि-"आप तो बुद्धदेव बाबू (वर्तमान में बंगाल के मुख्यमंत्री) को तो बहुत मानती थी, फिर नंदीग्राम और सिंगूर के मुद्दे पर आपने उनका साथ नहीं दिया?" बोलने लगी- " मैं बहुत दिन राजनीतिक की हूँ। किसानों की जमीं को दखल करके उद्योग कैसे लगाया जा सकता है?" तुम्हीं सोचो... फिर थोड़ा रूक कर किसान भूमिहीन हो जायेगा तो खायेगा क्या?
तब तलक फोटोग्राफर भी आ गया था। उसे देखते ही एकदम से उस पर बरस पड़ी "एई...ई अमार छ्वी कोथाई?" फिर मुस्कराते हुए बोलीं- " तारा.. ताड़ी छ्वी तुलो ... ओनेक काज कोरते होवे...."( देवज्योति फोटोग्रफर को देखते ही उस पर नाराज हो गई.... ए लड़के ... मेरी फोटौ कहाँ है? ... फिर थोड़ा मुस्कारते हुए कहा.. जल्दी से फोटो ले लो मुझे बहुत काम करना है अभी) इससे पहले जब हिन्द-युग्म के श्री शैलेश भारतवासी उनसे बात करना शुरू ही किये थे तो बात को शुरू करने के लिये मैंने जैसे ही बंगला में उनका परिचय देना शुरू किया तो बोलने लगी- "तुमी हिन्दीते बोलो... मैं अच्छा से हिन्दी जानती हूँ।"
आपने साहित्य व सांस्कृतिक आंदोलन के साथ राजनीतिक आन्दोलनों में भी भाग लिया है। तसलीमा नसरीन को कोलकाता से हटाये जाने के मामले को लेकर वे पश्चिम बंगाल व केंद्र सरकार के रवैये से काफी आहत हैं। आप बोलती हैं कि " इधर देश में जहाँ मुस्लमान हैं वहाँ हमलोग मुस्लीम उम्मीदवार तो जिधर हिन्दू हैं उधर हिन्दू उम्मीदवार खड़े करते हैं इससे देश कैसे चलेगा। सोचो तब तो उनकी भाषा में ही हमें बात करना होगा। हमने उनके साथ जो पल गुजारा इसे आपके साथ बाँटने का यह प्रयासभर है। किसी राजनैतिक विचारधारा से हमें कोई सरोकार नहीं है, फिर भी कहीं कोई बात आपको राजनीति सी लगती हो तो उसे नजरांदाज कर देंगे। इस अवसर पर आपको मेरे द्वारा संपादित कोलकाता से प्रकाशित एक समाजिक पत्रिका "समाज विकास" के कुछ साहित्य विशेषांक भी भेंट किया जिसे आपने स्वीकार करते हुए कहा कि- "खूब भालो काज कोरछो तुमी" ( खूब अच्छा काम करते हो तुम) चेहरे पर तेजस्व की रोशनी इस तरह चमक रही थी जैसे साक्षात हमने माँ का दर्शन कर लिया हो।
परिचय:
आप न सिर्फ एक प्रख्यात लेखिका एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। महाश्वेता देवी का जन्म सोमवार 14 जनवरी १९२६ को ईस्ट बंगाल जो भारत विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान वर्तमान में (बांग्लादेश) के ढाका शहर में हुआ था। आपके पिता मनीष घटक एक कवि और एक उपन्यासकार थे, और आपकी माता धारीत्री देवी भी एक लेखकिका और एक सामाजिक कार्यकर्ता थी। आपकी स्कूली शिक्षा ढाका में हुई। भारत विभाजन के समय किशोरवस्था में ही आपका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया। बाद में आपने विश्वभारती विश्वविद्यालय,शांतीनिकेतन से बी.ए.(Hons)अंग्रेजी में किया, और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय में एम.ए. अंग्रेजी में किया। कोलकाता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त करने के बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में आपने अपना जीवन शुरू किया। तदुपरांत आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता के रूप में नौकरी भी की। तदपश्चात 1984 में लेखन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए आपने सेवानिवृत्त ले ली।
महाश्वेता जी ने कम उम्र में लेखन का शुरू किया और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान दिया। आपकी पहली उपन्यास, "नाती", 1957 में अपनी कृतियों में प्रकाशित किया गया था
‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है। जो 1956 में प्रकाशन में आया। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने कलकत्ता में बैठकर नहीं बल्कि सागर, जबलपुर, पूना, इंदौर, ललितपुर के जंगलों, झाँसी ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज अफसर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। आप बताती हैं कि "पहले मेरी मूल विधा कविता थी, अब कहानी और उपन्यास है।" उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ' 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां', माहेश्वर, ग्राम बांग्ला हैं। पिछले चालीस वर्षों में, आपकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के करीब (सभी बंगला भाषा में) प्रकाशित हो चुकी है।
आपकी कुछ कृतियां हिन्दी में:(सभी बंग्ला से हिन्दी में रुपांतरण)
अक्लांत कौरव, अग्निगर्भ, अमृत संचय, आदिवासी कथा, ईंट के ऊपर ईंट, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, उम्रकैद, कृष्ण द्वादशी, ग्राम बांग्ला, घहराती घटाएँ, चोट्टि मुंडा और उसका तीर, जंगल के दावेदार, जकड़न, जली थी अग्निशिखा, झाँसी की रानी, टेरोडैक्टिल, दौलति, नटी, बनिया बहू, मर्डरर की माँ, मातृछवि, मास्टर साब, मीलू के लिए, रिपोर्टर, रिपोर्टर, श्री श्री गणेश महिमा, स्त्री पर्व, स्वाहा और हीरो-एक ब्लू प्रिंट आदि...

Contact Address: Smt. Mahasveta Devi, W-2C, 12/3 Phase- II, Golf Green, Kolakata - 700095 Phone: 033-24143033

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

लघुकथा की प्रासंगिकता एवं उपादेयता -डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव

आर्थिक उदारीकरण, ग्लोबलाइजेशन अर्थात् एक ध्रुवीय होती दुनिया के इस वर्तमान भौतिकवादी युग में किश्त-किश्त जीवन जीता आदमी व्यक्तिगत जिजीविषा की पूर्ति हेतु दिनोंदिन आदमी नहीं, मशीन बनता जा रहा है। वह समय को अपना उत्पादक बनाकर बहुत ही चालाकी से उसका व्यापार कर रहा है, वास्तविकता यह है कि ऐसे समय में जब दुनियां की मण्डी में समय की कलाबाजी हो रही है, मनुष्य अपना समय निःस्वार्थ नष्ट नहीं कर सकता। इसलिए पेशेवर साहित्यधर्मियों एवं पाठकों को छोडकर शेष लोग अपनी मानसिक थकान मिटाने हेतु कुछ ऐसा पढ़ना या समझना चाहते हैं, जिसमें समय कम लगे और उन्हें उसका प्रतिफल पर्याप्त मात्रा में प्राप्त कर सकें। साथ ही उसके ग्रहण करने एवं समझने का दायरा दर्पण की तस्वीर की तरह पारदर्शी भी हो। आज लघुकथाओं की यही सार्थकता, प्रासंगिकता एवं उपादेयता भी है।

लघुकथाकार अनावश्यक कथा विस्तार, वर्णनात्मक फैलाव और विलगाव से बचता हुआ जीवन के छोटे घटना प्रसंग संवेदनाओं के माध्यम से व्यक्त करता है। विधा के रूप में जिस तरह साहित्य के गद्य रूप की कथा विधाएँ-उपन्यास एवं कहानी होती है, उसी तरह लघुकथा इन्हीं तत्वों के परिप्रेक्ष्य में लिखी जाती हैं। इन तीनों उपविधाओं में अन्तर मात्र कथानकों का होता है जिसके कारण इन तीनों में स्वतः ही आकारगत अन्तर आ जाना लाजमी है। इन्हीं प्रमुख बिन्दुओं पर इसका शिल्प केन्द्रित होता है, अब वह शिल्प चाहे पारम्परिक हो, प्रयत्न साध्य हो या स्वयंभू हो। जहाँ तक लघुकथा की पृथक पहचान का सवाल है, एक तो कथानक को लेकर आकारगत इसकी अपनी पृथक पहचान हैं तो दूसरी ओर हृदय में गहरे पैठकर मार करने की इसकी क्षमता विशेष पहचान रखती है। या यूँ कहा जाये कि “लघु कथा युगबोध को अभिव्यक्त करती है और नैतिक जीवनमूल्यों और नैतिक जीवनमूल्यों की राख के अन्दर कुरेदती हे। वह आलपिन की चुभन भी है और गन्ध की छुअन भी है। दरअसल लघुकथा की अनिवार्य शर्त रूप में न होकर गुण में है, शिक्षा में न होकर संस्कार में है दृश्य में न होकर प्रभाव में है, स्वास्थ्य में न होकर व्यक्तित्व में है और व्यक्तित्व कर्म से बनता है, कसरत से नहीं।”

लघुकथा अपनी वैचारिक प्रक्रिया के द्वारा आश्रय के मन में एक भावनात्मक रूप ग्रहण करती है, जिसके भीतर उद्‌बोधित शोक, मानवीय शोषण, गरीबी, उत्पीड़न, असहायता के प्रति करुणा अर्थात् मानव को त्रासद परिस्थितियों से मुक्त कराने के भाव से सराबोर हो उठता है, जिसके कारण आश्रय के मन में साहस का एक ऐसा नया भाव जागृत हो उठता है जो बुराइयों, अन्धविश्वासों, रूढ़ियों, साम्राज्यवादियों, नीतियों के विरोध में संघर्ष और चुनौती का वीरतापूर्वक परिचय देने लगता है। सही अर्थों में देखा जाये तो लघुकथा की यही सत्योन्मुखी संवेदनशीलता है, जो शोषणविहीन समाज अर्थात् मंगलकारी तत्व की स्थापना करना चाहती है।

आकार की बात करें तो लघुकथा पंचतंत्र की बोधकथा की तरह आरम्भ होती है किन्तु बोध कथा का उद्देश्य केवल उपदेशात्मक होता था जबकि आधुनिक लघुकथा का लक्ष्य बहुआयामी है। तुलमात्मक दृष्टि से अवलोकर करें तो लघु कथाहास्य से थोड़ी दूर बनाकर चलती है, वहीं दूसरी ओर व्यंग्य के प्रति इसका सम्बन्ध घनिष्ट होता है। क्योंकि आज के विसंगति प्रधान समाज पर यह करारा प्रहार करती है।

लघुकथा में व्यंग्य का होना अनिवार्य नहीं है, परन्तु व्यंग्य की उपस्थिति से लघुकथा में रोचकता आ जाती है। लघुकथा अपनी विशेषता से पाठक के मूड में जबर्दस्त परिवर्तन कर दे, साथ ही उसके मानस को कुछ सोचने पर विवश कर दे, उसमें वैचारिक विद्रोह का बीज बो दे। यह भी कहा जा सकता है कि लघुकथा एक पृष्ठ की गद्य सीमा में पूर्वजों सा प्राचीन या नवजात शिशु-सा ताजा कथानक, प्रत्यंचा से कसे हुए शब्द, फैशन के समान बन्धनहीन आकर्षक शैली और अन्त में कुछ करने अथवा बनने की ओर पाठक की तड़प का उद्देश्य लिए हुए हो। इन्टरनेटी युग मे सभी इसकी सार्थकता है।

लघुकथाओं की सर्जनात्मक शक्ति कहानी से किसी स्तर में कम नहीं मान जा सकती है। समसामयिक जीवन की विसंगतियों के विरुद्ध लघुकथाओं में जिस तीखेपन और वास्तविक रूप में विरोध/प्रतिरोध का स्वर गुंजित हुआ है, उससे इन लघुकथाओं की जीवन्तता की तस्वीर स्पष्ट दिखती है। इसके साथ ही अन्य सम्भावनाओं की आशा एवं प्रगति साफ दिखती है। वास्तव में मन के अंतःकोणों से लेकर विराट सामाजिक परिदृश्य को चित्रित करने में लघु कथाएँ निश्चय ही अपने नघु रूपबन्ध कहानी के अनुरूप दिखाई देती है।

लघुकथा सामाजिक विद्रूपताओं/विसंगतियों के विरुद्ध एक रचनात्मक आह्वान है। लघुकथा पाठकों को आज की आपा-धापी और समयाभाव के बीव जीवनानुभवों और यथार्थ के विविध सन्दर्भों आयामों का बोध कराती है। इन लघुकथाओं के माध्यम से रचनाकार उन जीवनपरिस्थितियों से परिचय कराता है जिनसे सम्पूर्ण मानवीय जीवन प्रभावित होता है। ये लघुकथाएँ कविता और गजलों की तरह सामाजिक, राजनीतिक और दैनिक जीवन की विसंगतियों/घटनाओं को विशिष्ट अन्दाज में वर्णन करती है। पढ़ने वाला इसके प्रति लगाव महसूस करने लगता है। वास्तविकता यह है कि लघुकथाओं में ’नावक‘ के मानक के समान सीमित शब्दों में बहुत कुछ कहने की असीमित शक्ति छिपी हुई है। उसमें व्यंग्य की पैनी धार है, आक्रोश के तीखे स्वर हैं, प्रतीकों और बिम्बों की सशक्त प्रयोगधर्मिता है, सारग्राहवाणी, है क्रान्तिधर्मी चेतना है, समूचे परिवेश को समेट लेने की अपरिमित क्षमता विद्यमान रहती है।

आज बाजारवाद ने लोकतंत्र को अभिजात्व वर्ग तक सीमित कर दिया है। आधुनिक भारत में पूँजीवाद के विकास के असंगत गति के परिणामस्वरूप ही सामाजिक, राजनीतिक विषमताओं जन्म हुआ। आजादी के बाद हमारे देश में पूँजीवादी व्यवस्था का शोषण चक्र जिस तीव्रता के साथ हुआ है उससे हमारे सामाजिक जीवन में अजीबोगरीब परिवर्तन हुए हैं। वर्गवादी और स्वार्थी सत्ता की राजनीति ने अब तक मानवीय मूल्यों को अपूरणीय क्षति पहुँचाई है, जिससे मानव अमानवीय जीवन जीने के लिए विवश हुआ है। भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, स्मगलिंग, परिवारवाद, व्यक्तिवादी सोच को निरन्तर बढ़ावा मिलने के कारण सम्बन्धों में विघटन तेजी से आया है। व्यक्ति वर्गों और सम्प्रदायो में विभाजित हो गया है, वह उपभोक्ता संस्कृति का एक प्रोडक्ट बनकर रह गया है। साम्प्रदायिक, धार्मिक, आपराधिक राजनीति ने मनुष्य को असुरक्षा, भय और हिंसा के वातावरण में प्रवेश करने को मजबूर कर दिया है। अर्थशास्त्र की गणित के कारण रिश्वत, हिसां, लूट, बलात्कार तथा हत्या आदि को निरन्तर प्रश्रय मिल रहा है। नेता, अधिकारियों और पुलिस के त्रिगुट ने जहाँ अपने स्वार्थों की पूर्ति की है, वहीं मानव जीवन को प्रभावित/आतंकित भी किया है। इस पूँजीवादी व्यवस्था के पतनशील मूल्यों के कुप्रभाव के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की समस्या उत्पन्न हो गयी है। सूचना संचार के माध्यमों-प्रेस, पत्र, रेडियो, टेलिविजन द्वारा निरन्तर साहित्य-संस्कृति को क्षग्रिस्त करने का सफल-असफल प्रयास किया जा रहा है। पुलिस और नौकरशाही से तालमेल के कारण समाज में ऐसी घृणित घटनाओं का सृजन हो रहा है कि शर्म से सिर नीचा हो जाता है। इस तथ्य को प्रेस भी स्वीकार करता है। वोट बैंक, जातिवाद और राजनीति के कारण मानव मन, परिवार, गाँव, शहर और समूचे समाज में विघटन की सतत् प्रक्रिया जारी है। इक्कीसवीं सदी के हसीन सपनों में जीता हुआ व्यक्ति स्वतंत्रता, विकास, नई शिक्षा नीति के सुनहरे नारों के बीच आर्थिक संकट से उबरने के लिए भरपूर शक्ति से प्रयास कर रहा है। व्यवस्था की इन विसंगतियों और कुरूपताओं को यथार्थ अभिव्यक्ति देने में इन लघुकथाओं ने सशक्त और जारूक पेशकश की है। इनके माध्यम से पाठक प्रतिदिन के वातावरण में होने वाली घटनाओं एवं कशमकश से वाकिफ़ और रू-ब-रू होता है। दूसरी ओर वह उन परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार ताक़तों/शक्तियों को पहचानने में सफल होता है, जिसकी वजह से व्यक्ति का जीवन विसंगतिपूर्ण और अमानवीयता की ओर अग्रसर होता चला आ रहा है। लघुकथा का मूल अर्थ/तेवर मानवीय सहानुभूति का भाव एवं व्यवस्था में होने वाली सडांध का विरोध करना पड़ रहा है, जो इसकी सार्थकता को सिद्ध करता है।

हिन्दी लघुकथाओं के विकास में लघु पत्र/पत्रिकाओं की विशिष्ट भूमिका रही है क्योंकि इन पत्रिकाओं के माध्यम से ही लघुकथाओं की पहचान स्पष्ट हो सकती है। वास्तविकता यह है कि इन पत्रिकाओं के माध्यम से अपनी विकास यात्रा के दौरान इन लघुकथाओं ने उन ऊँचेऊँचे सोपानों को स्पर्श किया जिनके आधार पर ही कहानी केन्द्रीय विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। अपनी इस आत्म यात्रा में ही लघुकथाओं की लेखन परम्परा समृद्ध और प्रसिद्ध हुई है। सन् सत्तर के दशक में समकालीन विधाओं के बीच लघु कथा ने अपना एक स्वतंत्र वजूद बना दिया था। ’सारिका‘ जैसी महत्वपूर्ण कथापत्रिका ने लघुकथाओं के विशेषांक और महत्वपूर्ण अंकों को प्रकाशित कर लघुकथाओं के महत्व की स्वीकृति को सार्वजनिक किया है। वर्तमान समय में प्रत्येक पत्रिका में इस विधा के प्रति रुचि सम्पादकों का ध्यान आकृष्ट किए हुए हैं। हिन्दी आलोचकों ने अवश्य इस ओर अपनी उपेक्षा दृष्टि और संकीर्ण मानसिकता का परिचय दिया है। समय-समय पर लघुकथाओं के विशेषांक, प्रदर्शनी तथा सेमिनारों के बढ़ते प्रभाव ने इसकी प्रासंगिकता सिद्ध की है।

स्पष्ट है कि आकार, तकनीक एवं शैली के आधार पर लघुकथा की अपनी पृथक पहचान बन चुकी है। लघुकथा का शिल्प परिणाम एवं विस्तार में प्रौढ़ता प्राप्त कर चुका है। इसलिए वर्तमान में लघुकथा के प्रति अनेक रचनाकारों का समर्थन और उत्साह अकारण नहीं है। जिस तीव्रता के साथ लघुकथा समृद्धता की ओर अग्रसर हो रही है, वह किसी भी साहित्य के लिए आश्चर्य का विशय हो सकता है। यह कहा जा सकता है कि लघुकथा विधा की स्थापना व्यावहारिक, शास्त्रीय और सैद्धान्तिक दृष्टि से अपनी स्वाभाविक व सहज विकास यात्रा के प्रखर सोपान पर है, जो इसकी सार्थकता, प्रासंगिकता एवं उपादेयता को सिद्ध करता है।